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७. ३३-३४ ] दान तथा उसकी विशेषता
१९१ विधि, देयवस्तु, दाता और पात्र की विशेषता से दान की विशेषता है।
दानधर्म समस्त सद्गुणों का मूल है, अतः पारमार्थिक दृष्टि से उसका विकास अन्य सद्गुणों के उत्कर्ष का आधार है और व्यवहार-दृष्टि से मानवीय व्यवस्था के सामंजस्य का आधार है।
दान का अर्थ है न्यायपूर्वक प्राप्त वस्तु का दूसरे के लिए अर्पण । यह अर्पण करनेवाले तथा स्वीकार करनेवाले दोनों का उपकारक होना चाहिए । इसमे अर्पणकर्ता का मुख्य उपकार तो यह है कि उस वस्तु पर से उसकी ममता हटे और इस प्रकार उसे सन्तोष और समभाव की प्राप्ति हो। स्वीकारकर्ता का उपकार यह है कि उस वस्तु से उसे अपनी जीवनयात्रा में मदद मिले और परिणामस्वरूप उसके सद्गुणों का विकास हो ।
दानरूप मे सभी दान समान होने पर भी उनके फल मे तरतमभाव रहता है । यह तरतमभाव दानधर्म की विशेषता के कारण होता है। यह विशेषता मुख्यतया दानधर्म के चार अङ्गों की विशेषता के अनुसार होती है। इन चार अङ्गों को विशेषताएं इस प्रकार है-१.विधि-विधि की विशेषता मे देश, काल का औचित्य और प्राप्तकर्ता के सिद्धान्त को बाधा न पहुँचे ऐसी कल्पनीय वस्तु का अर्पण इत्यादि बातों का समावेश है। २. द्रव्य-द्रव्य की विशेषता में देय वस्तु के गुणों का समावेश होता है । जिस वस्तु का दान किया जाय वह प्राप्तकर्ता पात्र की जीवनयात्रा में पोषक तथा परिणामतः उसके निजी गुणविकास में निमित्त बननेवाली हो। ३. दाता-दाता को विशेषता मे पात्र के प्रति श्रद्धा का होना, उसके प्रति तिरस्कार या असूया का न होना तथा दान देते समय या बाद मे विषाद न करना इत्यादि दाता के गुणों का समावेश है। ४. पात्र--सत्पुरुषार्थ के लिए जागरूक रहना दान लेनेवाले पात्र की विशेषता है । ३३-३४ ।
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