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८ १५-२२] स्थिति व अनुभाव बन्ध
२०१ स्थितिबन्ध आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटयः परा स्थितिः । १५ । सप्ततिर्मोहनीयस्य । १६ । नामगोत्रयोविंशतिः। १७ । त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाण्यायुष्कस्य । १८ । अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य । १९ । नामगोत्रयोरष्टौ । २०।
शेषाणामन्तमुहूर्तम् । २१ । प्रथम तीन अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वेदनीय तथा अन्तराय इन चार कर्म-प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटी सागरोपम है।
मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोटाकोटी सागरोपम है । नाम और गोत्र की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटाकोटी सागरोपम है । आयुष्क की उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम है। वेदनीय की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त है । नाम और गोत्र की जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त है ।
शेष पाँच अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, मोहनीय और आयुष्य की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है।
प्रत्येक कर्म की उत्कृष्ट स्थिति के अधिकारी मिथ्यादृष्टि पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव होते है, जघन्य स्थिति के अधिकारी भिन्न-भिन्न जीव होते है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय इन छहों की जघन्य स्थिति मूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान मे सम्भव है। मोहनीय की जघन्य स्थिति नवें अनिवृत्तिबादरसम्पराय नामक गुणस्थान मे सम्भव है। आयुष्य की जघन्य स्थिति संख्यातवर्षजीवी तिर्यच और मनुष्य मे सम्भव है। मध्यम स्थिति के असंख्यात प्रकार है और उनके अधिकारी भी काषायिक परिणाम की तरतमता के अनुसार असंख्यात हैं । १५-२१ ।
अनुभावबन्ध विपाकोऽनुभावः। २२। स यथानाम । २३ । ततश्च निर्जरा। २४ ।
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