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९. ८-१७ ]
परीषह त्याग द्वारा कुशल परिणाम की प्राप्ति हो इस प्रकार संचित कर्मों को भोगना श्रेयस्कर है । यह निर्जरानुप्रेक्षा है।
१०. लोकानुप्रेक्षा-तत्त्वज्ञान की विशुद्ध के निमित्त विश्व के वास्तविक स्वरूप का चिन्तन करना लोकानुप्रेक्षा है ।
११. बोधिदुर्लभत्वानुप्रेक्षा-प्राप्त हुए मोक्षमार्ग मे अप्रमत्तभाव की साधना के लिए ऐसा विचार करना कि 'अनादिप्रपंच-जाल मे, विविध दु.खों के प्रवाह में तथा मोह आदि कर्मों के तीव्र आघातो को सहन करते हुए जीव को शुद्ध दृष्टि और शुद्ध चारित्र प्राप्त होना दुर्लभ है' । यह बोधिदुर्लभत्वानुप्रेक्षा है।
१२. धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा-धर्ममार्ग से च्युत न होने और उसके अनुष्ठान में स्थिरता लाने के लिए ऐसा चिंतन करना कि 'यह कितना बड़ा सौभाग्य है कि जिससे समस्त प्राणियों का कल्याण होता है ऐसे सर्वगुणसम्पन्न धर्म का सत्पुरुषों ने उपदेश किया है । यह धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा है । ७ ।
। परीषह मार्गाऽच्यवननिर्जराथ परिसोढव्याः परीषहाः। ८ । क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाचनाऽलाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ।९। सूक्ष्मसम्परायच्छमस्थवीतरागयोश्चतुर्दश । १० । एकादश जिने । ११ । बादरसम्पराये सर्वे । १२ । ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने। १३ । दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ । १४ । चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः।१५। वेदनीये शेषाः । १६ । एकादयो भाज्या युगपदैकोनविंशतेः। १७ ।
मार्ग से च्युत न होने एवं कर्मों के क्षय के लिए जो सहन करने योग्य हों वे परीषह हैं।
१. श्वेताम्बर व दिगम्बर सभी पुस्तको में 'घ' छपा हुआ मिलता है, परन्तु यह परीषह शब्द के 'ष' के साम्य के कारण व्याकरणविषयक भ्रान्ति-मात्र है। वस्तुतः व्याकरण के अनुसार ‘परिसोढव्याः ' ही शद्ध रूप है। जैसे देखे-सिद्धहेम व्याकरण, २.३.४८ तथा पाणिनीय व्याकरण, ८३ ११५
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