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तत्त्वार्थसूत्र
[ ९. ८-१७ ३. अधिकारी-भेद-जिसमे सम्पराय (लोभकषाय ) की बहुत कम सम्भावना हो उस सूक्ष्मसम्पराय नामक गुणस्थान मे तथा उपशान्तमोह व क्षीणमोह नामक गुणस्थानों में चौदह परीषह ही सम्भव है । वे ये है-क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, प्रज्ञा, अज्ञान, अलाभ, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल । शेष आठ सम्भव नहीं है, क्योकि वे मोहजन्य है, एवं ग्यारहवें और बारहवे गुणस्थानों में मोहोदय का अभाव है। यद्यपि दसवें गुणस्थान में मोह होता है पर वह इतना अल्प होता है कि न होने जैसा ही कह सकते है। इसीलिए इस गुणस्थान में भी मोहजन्य आठ परीषहों की शक्यता का उल्लेख न करके केवल चौदह की शक्यता का उल्लेख किया गया है ।
तेरहवें और चौदहवें' गुणस्थानों में केवल ग्यारह ही परीषह सम्भव है । वे है-क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, देशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल । शेष ग्यारह घातिकर्मजन्य होते हैं और इन गुणस्थानों मे घातिकर्मों का अभाव होने से वे सम्भव नही है ।
जिसमें सम्पराय ( कषाय ) की बादरता अर्थात् विशेष रूप में सम्भावना हो उस बादरसम्पराय नामक नवें गुणस्थान में बाईस परीषह होते है, क्योंकि परीषहों के कारणभूत सभी कर्म वहीं होते है । नवें गुणस्थान में बाईस परीषहों की सम्भावना का कथन करने से उसके पहले के छठे आदि गुणस्थानों में उतने ही परीषह सम्भव हैं, यह स्वतः फलित हो जाता है । १०-१२ ।
४. कारण-निर्देश-कुल चार कर्म परीषहों के कारण माने गये है।
१. इन दो गुणस्थानो मे परीषहों के विषय में दिगम्बर और श्वेताम्बर संप्रदायो मे मतभेद है, जो सर्वज्ञ में कवलाहार मानने और न मानने के कारण है। इसीलिए दिगम्बर व्याख्याग्रन्थ 'एकादश जिने सूत्र को मानते हुए भी इसकी व्याख्या तोड-मरोड कर करते प्रतीत होते है । व्याख्या एक नही बल्कि दो की गई है और वे तीन साम्प्रदायिक मतभेद के बाद की ही है, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। पहली व्याख्या के अनुसार ऐसा अर्थ किया जाता है कि जिन (सर्वज्ञ ) मे क्षधा आदि ग्यारह परीषह ( वेदनीय कर्मजन्य ) है, लेकिन मोह न होने से वे क्षधा आदि वेदना रूप न होने के कारण उपचार मात्र से द्रव्य परीषह है। दूसरी व्याख्या के अनुसार 'न' शब्द का अभ्याहार करके यह अर्थ किया जाता है कि जिनमें वेदनीय कर्म होने पर भी तदाश्रित क्षधा आदि ग्यारह परोषह मोह के अभाव के कारण बाधा-रूप न होने से है ही नहीं।
२. दिगम्बर व्याख्या-ग्रन्थ यहाँ बादरसम्पराय शब्द को संज्ञा न मानकर विशेषण मानते हैं, जिस पर से वे छठे आदि चार गुणस्थानो का अर्थ घटित करते है ।
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