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चारित्र के भेद
ज्ञानावरण प्रज्ञा' व अज्ञान परीषहों का कारण है; अन्तरायकर्म अलाभपरीषह का कारण है; मोहनीय मे से दर्शनमोहनीय अदर्शन का और चारित्रमोहनीय नग्नत्व, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, सत्कार इन सात परीषहों का कारण है; वेदनीय कर्म ऊपर निर्दिष्ट सर्वज्ञ मे सम्भाव्य ग्यारह परीषहों का कारण है । १३-१६ ।
५. एक साथ एक जीव में संभाव्य परोषह - बाईस परीषहों में अनेक परीषह परस्परविरोधी हैं, जैसे शीत, उष्ण, चर्या, शय्या और निषद्या । इनमे से पहले दो और बाद के तीन एक साथ सम्भव ही नही है । शीत परीषह के होने पर उष्ण और उष्ण के होने पर शीत सम्भव नही । इसी प्रकार चर्या, शय्या और निषद्या इन तीनों मे से भो एक समय मे एक ही परीषह सम्भव है । इसीलिए उक्त पाँचों में से एक समय मे किन्हीं भी दो को सम्भव और तीन को असम्भव मानकर एक आत्मा मे एक साथ अधिक-से-अधिक १९ परीषह सम्भव माने गये है । १७ ।
चारित्र के भेद
सामायिकच्छेदोपस्थाप्यपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसम्पराय - यथाख्यातानि चारित्रम् । १८ ।
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सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात -- यह पाँच प्रकार का चारित्र है ।
आत्मिक शुद्धदशा में स्थिर रहने का प्रयत्न करना चारित्र है । परिणामशुद्धि के तरतमभाव की अपेक्षा से चारित्र के सामायिक आदि पाँच भेद है । वे इस प्रकार है :
१. सामायिक चारित्र - समभाव मे स्थित रहने के लिए समस्त अशुद्ध प्रवृत्तियों का त्याग करना सामायिकचारित्र है । छेदोपस्थापन आदि शेष चार चारित्र सामायिकरूप तो है ही, फिर भी आचार और गुण की कुछ विशेषताओं के कारण इन चारों का सामायिक से पृथक् रूप मे वर्णन किया गया है । इत्वरिक अर्थात् कुछ समय के लिए अथवा यावत्कथिक अर्थात् सम्पूर्ण जीवन के लिए जो पहले-पहल मुनि दीक्षा ली जाती है वह सामायिक है ।
२. छेदोपस्थापनचारित्र -- प्रथम दीक्षा के पश्चात् विशिष्ट श्रुत का अभ्यास कर लेने पर विशेष शुद्धि के लिए जीवनपर्यंत पुनः जो दीक्षा ली जाती है, एवं
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१. चमत्कारिणी बुद्धि कितनी ही क्यों न हो, परिमित होने के कारण ज्ञानावरण के आश्रित ही होती है, अतः प्रज्ञापरीषह ज्ञानावरणजन्य ही है ।
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