Book Title: Tattvarthasutra Hindi
Author(s): Umaswati, Umaswami, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 380
________________ २१४ तत्त्वार्थसूत्र [ ९. ८-१७ क्षुधा, तृष्णा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नत्व, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन--ये बाईस परीषह हैं। सूक्ष्मसम्पराय व छद्मस्थवीतराग में चौदह परीषह सम्भव हैं । जिन भगवान् में ग्यारह परीषह सम्भव हैं। बादरसम्पराय में बाईसों परीषह सम्भव हैं। ज्ञानावरणरूप निमित्त से प्रज्ञा और अज्ञान परीषह होते हैं । दर्शनमोह से अदर्शन और अन्तराय कर्म से अलाभ परीषह होते हैं। चारित्रमोह से नग्नत्व, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कार-पुरस्कार परीषह होते है । वेदनीय से शेष सभी परीषह होते है। एक साथ एक आत्मा में १ से १९ तक परीषह विकल्प से सम्भव हैं। __ संवर के उपाय के रूप में सूत्रकार ने परीषहों के पाँच अंगों का निरूपण किया है-१. परीषहो का लक्षण, २. उनकी संख्या, ३. अधिकारी भेद से उनका विभाग, ४. उनके कारणो का निर्देश और ५. एक साथ एक जीव में सम्भाव्य परीषह । यहाँ प्रत्येक अग का विशेष विचार किया जाता है । १. लक्षण-अङ्गीकृत धर्ममार्ग मे स्थिर रहने और कर्मबन्धन के विनाश के लिए जो स्थिति समभावपूर्वक सहन करने योग्य है उसे परीषह कहते है । ८ । २. संख्या-यद्यपि परीषहों की संख्या संक्षेप मे कम और विस्तार मे अधिक भी कल्पित की जा सकती है तथापि त्याग के विकास के लिए विशेषरूप मे बाईस परीषह शास्त्र मे बतलाए गए है । वे ये है-१-२ क्षुधा और पिपासा-- भूख और प्यास की चाहे जैसी वेदना हो, फिर भी अङ्गीकृत मर्यादा के विपरीत आहार-जल न लेते हुए समभावपूर्वक इन वेदनाओ को सहना। ३-४. शीत व उष्ण- ठंड और गरमी से चाहे जितना कष्ट होता हो, फिर भी उसके निवारणार्थ किसी भी अकल्प्य वस्तु का सेवन न करके समभावपूर्वक उन वेदनाओं को सहना । ५. दशमशक-डाँस, मच्छर आदि जन्तुओ के उपद्रव को खिन्न न होते हुए समभावपूर्वक सहन करना। ६. नग्नता'नग्नता को समभावपूर्वक सहन १. इस परीषह के विषय मे श्वेताम्बर व दिगम्बर दोनो सम्प्रदायो में विशेष मतभेद है और इसी के कारण श्वेताम्बर-दिगम्बर नाम पडे है । श्वेताम्बर शास्त्र विशिष्ट साधकों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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