Book Title: Tattvarthasutra Hindi
Author(s): Umaswati, Umaswami, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 378
________________ २१२ तत्त्वार्थसूत्र [९.७ अनुभव करते है । यह संसार हर्ष-विषाद, सुख-दु.ख आदि द्वन्द्वों का स्थान है और सचमुच कष्टमय है । इस प्रकार का चिन्तन संसारानुप्रेक्षा है । ४. एकत्वानुप्रेक्षा-मोक्ष-प्राप्ति की दृष्टि से रागद्वेष के प्रसंगों मे निर्लेपता की साधना आवश्यक है । अत. स्वजन-विषयक राग तथा परजन-विषयक द्वष को दूर करने के लिए ऐसा विचार करना कि 'मै अकेला ही जन्मता-मरता हूँ, अकेला ही अपने बोये हुए कर्मबीजो के सुख-दु खादि फलो का अनुभव करता हूँ, बास्तव मे मेरे सुख-दुःख का कोई कर्ता-हर्ता नही है' । यह एकत्वानुप्रेक्षा है। ५. अन्यत्वानुप्रेक्षा-मनुष्य मोहावेश से शरीर और अन्य वस्तुओं की ह्रासवृद्धि मे अपनी ह्रास-वृद्धि को मानने को भूल करके मूल कर्तव्य को भूल जाता है। इस स्थिति के निरासार्थ शरीर आदि अन्य वस्तुओं मे अपनी आदत को दूर करना आवश्यक है । इसीलिए इन दोनो के गुण-धर्मो की भिन्नता का चिन्तन करना कि शरीर तो जड, स्थूल तथा आदि-अन्त युक्त है और मैं तो चेतन, सूक्ष्म-आदि, अन्तरहित हूँ। यह अन्यत्वानुप्रेक्षा है । ६. अशुचित्वानुप्रेक्षा-सबसे अधिक घृणास्पद शरीर ही है, अतः उस पर से मूर्छा घटाने के लिए ऐसा सोचना कि शरीर स्वयं अशुचि है, अशुचि से ही पैदा हुआ है, अशुचि वस्तुओ से इसका पोषण हुआ है, अशुचि का स्थान है और अशुचि-परम्परा का कारण है । यह अशुचित्वानुप्रेक्षा है । ७. प्रास्रवानप्रेक्षा-इन्द्रिय-भोगो की आसक्ति कम करने के लिए प्रत्येक इन्द्रिय के भोगसम्बन्धी राग से उत्पन्न होनेवाले अनिष्ट परिणामों का चिन्तन करना आस्रवानुप्रेक्षा है। ८. संवरानुप्रेक्षा--दुर्वृत्ति के द्वारों को बन्द करने के लिए सद्वृत्ति के गुणों का चिन्तन करना संवरानुप्रेक्षा है । ९. निर्जरानप्रेक्षा-कर्म-बन्धन को नष्ट करने की वृत्ति दृढ़ करने के लिए विविध कर्म-विपाकों का चिन्तन करना कि दु.ख के प्रसंग दो प्रकार के होते है इच्छा और सज्ञान प्रयत्न के बिना प्राप्त हुआ, जैसे पशु, पक्षी और बहरे, बाद दु.खप्रधान जन्म तथा उत्तराधिकार मे प्राप्त गरीबी: दूसरा सदुद्देश्य से सज्ञान प्रयत्नपूर्वक प्राप्त किया हुआ, जैसे तप और त्याग के कारण प्राप्त गरीबी और शारीरिक कृशता आदि । पहले मे वृत्ति का समाधान न होने से वह अरुचि का कारण होकर अकुशल परिणामदायक बनता है और दूसरा सद्वृत्तिजनित होने से उसका परिणाम कुशल ही होता है। अतः अचानक प्राप्त हुए कटुक विपाकों में समाधान-वृत्ति साधना तथा जहाँ सम्भव हो वहाँ तप और ए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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