Book Title: Tattvarthasutra Hindi
Author(s): Umaswati, Umaswami, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 376
________________ तत्त्वार्थ सूत्र [ ९.६ ४. शौच-धर्म के साधनों तथा शरीर तक मे भी आसक्ति न रखना- ऐसी निर्लोभता शौच है । २१० ५. सत्य — सत्पुरुषों के लिए हितकारी व यथार्थ वचन बोलना ही सत्य है । भाषासमिति और सत्य में अन्तर यह है कि प्रत्येक मनुष्य के साथ बोलचाल मे विवेक रखना भाषासमिति है और अपने समशील साधु पुरुषों के साथ सम्भाषणव्यवहार मे हित, मित और यथार्थ वचन का उपयोग करना सत्य नामक यतिधर्म है । ६. संयम - मन, वचन और काय का नियमन करना अर्थात् विचार, वाणी और गति, स्थिति आदि मे यतना ( सावधानी ) का अभ्यास करना सयम है ।" ७. तप- मलिन वृत्तियों को निर्मूल करने के निमित्त अपेक्षित शक्ति की साधना के लिए किया जानेवाला आत्मदमन तप है । २ ८. त्याग - पात्र को ज्ञानादि सद्गुण प्रदान करना त्याग है । ९. प्राचिन्य- किसी भी वस्तु मे ममत्वबुद्धि न रखना आकिंचन्य है । १०. ब्रह्मचर्य - त्रुटियों को दूर करने के लिए ज्ञानादि सद्गुणों का अभ्यास करना एवं गुरु की अधीनता के सेवन के लिए ब्रह्म (गुरुकुल) मे चर्य ( बसना ) ब्रह्मचर्य है । इसके परिपालनार्थ अतिशय उपकारक अनेक गुण है, जैसे आकर्षक १. संयम के सत्रह प्रकार है, जो भिन्न-भिन्न रूप मे है : पाँच इंद्रियों का निग्रह, पाँच अव्रतों का त्याग, चार कषायो का जय तथा मन, वचन और काय की विरति । इसी प्रकार पॉच स्थावर और चार त्रस ये नौ संयम तथा प्रेक्ष्यसंयम, उपेक्ष्यसयम, अपहृत्यसंयम, प्रमृज्यमंयम, कायसंयम, वाक्संयम, मन. संयम और उपकरणसंयम इस तरह कुल सत्रह प्रकार का संयम है । २. इसका वर्णन इसी अध्याय के सूत्र १६-२० मे है । इसके उपरांत अनेक तपस्वियो द्वारा आचरित अलग-अलग प्रकार के तप जैन परम्परा मे प्रसिद्ध है । जैसे यवमध्य और वज्रमध्य ये दो; चान्द्रायण; कनकावली, रत्नावली और मुक्तावली ये तीन; क्षुल्लक और महा ये दो सिंहविक्रीडित; सप्तसप्तमिका, अष्ठअष्टमिका, नवनवमिका, दशदशमिका ये चार प्रतिमाएँ; क्षुद्र और महा ये दो सर्वतोभद्र, भद्रोत्तर आचाम्ल; वर्धमान एवं बारह भिक्षप्रतिमाएँ इत्यादि । इनके विशेष वर्णन के लिए देखें- आत्मानन्द सभा द्वारा प्रकाशित तपोरत्नमहोदधि नामक ग्रन्थ | ३. गुरु ( आचार्य ) पाँच प्रकार के है - प्रव्राजक, दिगाचार्य, श्रुतोद्दे ष्टा, श्रुतसमुद्दे ष्टा, आम्नायार्थवाचक | जो प्रव्रज्या देता है वह प्रव्राजक, जो वस्तुमात्र की अनुज्ञा प्रदान करे वह दिगाचार्य, जो आगम का प्रथम पाठ पढाए वह श्रुतोद्दे ष्टा, जो स्थिर परिचय कराने के लिए आगम का विशेष प्रवचन करे वह श्रुतसमुद्देष्टा और जो आम्नाय के उत्सर्ग और अपवाद का रहस्य बतलाए वह आम्नायार्थवाचक कहलाता है । Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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