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९. ६ ] धर्म के भेद
२.९ कारण दिखाई न पड़े तो सोचना चाहिए कि यह बेचारा अज्ञान से मेरी भूल निकालता है। यहो अपने मे क्रोध के निमित्त के होने या न होने का चिन्तन है।।
( ख ) जिसे क्रोध आता है वह विभ्रममतियुक्त होने से आवेश मे आकर दूसरे के साथ शत्रुता बांधता है, फिर उसे मारता या हानि पहुंचाता है और इस तरह अपने अहिंसाव्रत को नष्ट करता है। इस प्रकार के अनर्थ का चिन्तन ही क्रोधवृत्ति के दोषों का चिन्तन कहलाता है ।
(ग ) कोई पीठपीछे निन्दा करे तो ऐसा चिन्तन करना कि बाल (नासमझ) लोगों का यह स्वभाव ही है, इसमे बात ही क्या है ? उलटा लाभ है जो बेचारा पोठपीछे गाली देता है, सामने तो नही आता । यही प्रसन्नता की बात है । जब कोई सामने आकर गाली दे तब ऐसा सोचना कि यह तो बालजनों की ही बात है, जो अपने स्वभाव के अनुसार ऐसा करते हैं, इससे अधिक तो कुछ करते नही । सामने आकर गाली ही देते है, प्रहार तो नहीं करते, यह भी लाभ ही है। इसी प्रकार यदि कोई प्रहार करे तो उपकार मानना कि वह प्राणमुक्त तो नहीं करता और यदि कोई प्राणमुक्त करे तब धर्मभ्रष्ट न कर सकने का लाभ मानकर अपने प्रति उसकी दया का चिन्तन करना । इस प्रकार जैसे-जैसे अधिक कठिनाइयाँ आये वैसेवैसे अपने में विशेष उदारता और विवेक का विकास करके उपस्थित कठिनाइयों को सरल बनाना ही बालस्वभाव का चिन्तन है ।
(घ) कोई क्रोध करे तब यह सोचना कि इस अवसर पर दूसरा तो निमित्तमात्र है, वास्तव मे यह प्रसंग मेरे अपने ही पूर्वकृत कर्मो का परिणाम है । यही अपने कृत कर्मों का चिन्तन है ।
(ङ) कोई क्रोध करे तब यह सोचना कि 'क्षमा धारण करने से चित्त स्वस्थ रहता है, बदला लेने या प्रतिकार करने में व्यय होनेवाली शक्ति का उपयोग सन्मार्ग मे किया जा सकता है । यही क्षमा के गुणों का चिन्तन है ।
२. मार्दव-चित्त में मृदुता और व्यवहार में भी नम्रवृत्ति का होना मार्दव गुण है। इसकी सिद्धि के लिए जाति, कुल, रूप, ऐश्वर्य, विज्ञान ( बुद्धि ), श्रुत (शास्त्र), लाभ (प्राप्ति), वीर्य ( शक्ति) के विषय मे अपने को बड़ा या ऊंचा मानकर गवित न होना और इन वस्तुओ की विनश्वरता का विचार करके अभिमान के कांटे को निकाल फेंकना ।
३. प्रार्जव-भाव की विशुद्धि अर्थात् विचार, भाषण और व्यवहार की एकता ही आर्जव गुण है । इसकी प्राप्ति के लिए कुटिलता या मायाचारी के दोषो के परिणाम का विचार करना।
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