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९. ४-५ ]
गुप्ति का स्वरूप
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सामान्यतः संवर का एक ही स्वरूप है, फिर भी प्रकारान्तर से उसके अनेक भेद कहे गए है । संक्षेप में से इसके ७ और विस्तार मे ६९ उपाय बताए गए है । यह संख्या धार्मिक आचारों के विधानो पर अवलम्बित है ।
जैसे तप संवर का उपाय है वैसे ही वह निर्जरा का भी प्रमुख कारण है । सामान्यतया तप अभ्युदय ( लौकिक सुख ) की प्राप्ति का साधन माना जाता है, फिर भी वह निःश्रेयस ( आध्यात्मिक सुख ) का भी साधन है क्योकि तप एक होने पर भी उसके पीछे की भावना के भेद के कारण वह सकाम और निष्काम दो प्रकार का हो जाता है । सकाम तप अभ्युदय का साधक हैं और निष्काम तप निश्रेयस का । २-३ ।
गुप्ति का स्वरूप सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः । ४ ।
योगों का भलीभाँति निग्रह करना गुप्ति है ।
कायिक, वाचिक और मानसिक क्रिया अर्थात् योग का सभी प्रकार से निग्रह करना गुप्ति नही है, किन्तु प्रशस्त निग्रह ही गुप्ति होकर संवर का उपाय बनता है । प्रशस्त निग्रह का अर्थ है सोचसमझकर तथा श्रद्धापूर्वक स्वीकार किया गया अर्थात् बुद्धि और श्रद्धापूर्वक मन, वचन और काय को उन्मार्ग से रोकना और सन्मार्ग मे लगाना । योग के संक्षेप मे तीन भेद है, अतः निग्रहरूप गुप्ति के भी तीन भेद होते है :
१. किसी भी वस्तु के लेने व रखने में अथवा बैठने उठने व चलने-फिरने मे कर्तव्य - अकर्तव्य का विवेक हो, इस प्रकार शारीरिक ब्यापार का नियमन करना ही काय गुप्ति हैं । २. बोलने के प्रत्येक प्रसंग पर या तो वचन का नियमन करना या मौन धारण करना वचनगुप्ति है । ३. दुष्ट संकल्प एवं अच्छे-बुरे मिश्रित संकल्प का त्याग करना और अच्छे संकल्प का सेवन करना मनोगुप्ति है ।
समिति के भेद
ईर्याभाषैषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः । ५ ।
सम्यगईर्या, सम्यग्भाषा, सम्यग्एषणा, सम्यग्आदान- निक्षेप और सम्यग्उत्सर्ग ये पाँच समितियाँ है ।
सभी समितियाँ विवेकयुक्त प्रवृत्तिरूप होने से संवर का उपाय बनती है । पाँचों समितियाँ इस प्रकार है :
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