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९. ७ ] अनुप्रेक्षा के भेद
२११ स्पर्श, रस, गन्ध, रूप, शब्द और शरीर-संस्कार आदि मे न उलझना । इसी प्रकार अध्याय ७ के सूत्र ३ मे वर्णित चतुर्थ महाव्रत की पाँच भावनाओं का विशेष रूप से अभ्यास करना।६।
अनुप्रेक्षा के भेद अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुचित्वास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः । ७।
अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभत्व और धर्मस्वाख्यातत्व--इनका अनुचिन्तन ही अनुप्रेक्षाएं हैं। __ अनुप्रेक्षा अर्थात् गहन चिन्तन । तात्त्विक और गहरे चिन्तन द्वारा रागद्वेष आदि वृत्तियाँ रुक जाती है। इसीलिए ऐसे चिन्तन को संवर का उपाय कहा गया है।
जीवनशुद्धि मे विशेष उपयोगी बारह विषयो को चुनकर उनके चिन्तन को बारह अनुप्रेक्षाओं के रूप मे गिनाया गया है । अनुप्रेक्षा को भावना भी कहते है । बारह अनुप्रेक्षाओं का परिचय नीचे दिया जा रहा है ।
१. अनित्यानुप्रेक्षा—किसी भी प्राप्त वस्तु के वियोग से दु ख न हो इसलिए उन सभी वस्तुओं मे आसक्ति कम करना आवश्यक है । इसके लिए ही शरीर और घरबार आदि वस्तुएँ एवं उनके सम्बन्ध नित्य और स्थिर नही है, ऐसा चिन्तन करना ही अनित्यानुप्रेक्षा है ।
२. प्रशरणानुप्रेक्षा-एकमात्र शुद्ध धर्म को ही जीवन का शरणभूत स्वीकार करने के लिए अन्य सभी वस्तुओं से ममत्व हटाना आवश्यक है। इसके लिए ऐसा चिन्तन करना कि जैसे सिंह के पंजे मे पडे हुए हिरन का कोई शरण नहीं वैसे ही आधि ( मानसिक रोग), व्याधि ( शारीरिक रोग) और उपाधि से ग्रस्त मैं भी सर्वदा के लिए अशरण हूँ। यह अशरणानुप्रेक्षा है।
३. संसारानुप्रेक्षा-संसारतृष्णा का त्याग करने के लिए सांसारिक वस्तुओं मे निर्वेद ( उदासीनता ) की साधना आवश्यक है। इसीलिए ऐसी वस्तुओं से मन को हटाने के लिए ऐसा चिन्तन करना कि इस अनादि जन्म-मरण-संसार में न तो कोई स्वजन है और न कोई परजन, क्योंकि प्रत्येक के साथ तरह-तरह के सम्बन्ध जन्म-जन्मान्तर में हुए है। इसी प्रकार राग, द्वेष और मोह से संतप्त प्राणी विषयतृष्णा के कारण एक-दूसरे को हडपने की नीति से असह्य दुःखों का
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