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तत्त्वार्थसूत्र १. ईर्यासमिति-किसी भी जन्तु ( प्राणी) को क्लेश न हो, इसलिए सावधानीपूर्वक चलना । २. भाषासमिति-सत्य, हितकारी, परिचित और संदेहरहित बोलना । ३. एषणासमिति-जीवन-यात्रा मे आवश्यक निर्दोष साधनों को जुटाने के लिए सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करना। ४. आदाननिक्षेपसमिति-वस्तुमात्र को भलीभांति देखकर एवं प्रमार्जित करके लेना या रखना । ५. उत्सर्गसमिति-जीवरहित प्रदेश में देखभालकर एवं प्रमार्जित करके ही अनुपयोगी वस्तुओं का विसर्जन करना।
प्रश्न-गुप्ति और समिति मे क्या अन्तर है ?
उत्तर-गुप्ति मे असत्क्रिया के निषेध की मुख्यता है और समिति में सक्रिया के प्रवर्तन की मुख्यता है । ५ ।
धर्म के भेद उत्तमः क्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः ।।
क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दस उत्तम धर्म हैं।
क्षमा आदि गुणों को जीवन में उतारने से ही क्रोध आदि दोषों का अभाव होता है, इसीलिए इन गुणों को संवर का उपाय कहा गया है। क्षमा आदि दस प्रकार का धर्म जब अहिसा, सत्य आदि मूलगुणों तथा स्थान, आहार-शुद्धि आदि उत्तरगुणों के प्रकर्ष से युक्त होता है तभी यतिधर्म बनता है, अन्यथा नहीं । अभि. प्राय यह है कि अहिसा आदि मूलगुणो या उत्तरगुणों के प्रकर्ष से रहित क्षमा आदि गुण भले ही सामान्य धर्म कहलाएँ पर यतिधर्म की कोटि मे नही आ सकते । ये दस धर्म इस प्रकार है
१. क्षमा-सहनशील रहना अर्थात् क्रोध पैदा न होने देना और उत्पन्न क्रोध को विवेक तथा नम्रता से निष्फल कर डालना। क्षमा की साधना के पाँच उपाय है : अपने मे क्रोध के निमित्त के होने या न होने का चिन्तन करना, क्रोधवृत्ति के दोषों का विचार करना, बालस्वभाव का विचार करना, अपने किए हुए कर्म के परिणाम का विचार करना और क्षमा के गुणों का चिन्तन करना ।
(क) कोई क्रोध करे तब उसके कारण को अपने मे हूँढना। यदि दूसरे के क्रोध का कारण अपने में दृष्टिगोचर हो तो ऐसा विचार करना कि भूल तो मेरी अपनी ही है, दूसरे की बात तो सच है । कदाचित् अपने मे दूसरे के क्रोध का
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