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संवर-निर्जरा बन्ध के वर्णन के बाद अब इस नवें अध्याय में संवर एवं निर्जरा तत्त्व का निरूपण किया जाता है।
संवर का स्वरूप
आस्रवनिरोधः संवरः।१। आस्रव का निरोध संवर है।
जिस निमित्त से कर्म का बन्ध होता है वह आस्रव है। आस्रव की व्याख्या पहले की जा चुकी है । आस्रव का निरोध अर्थात् प्रतिबन्ध करना ही संवर है । आस्रव के ४२ भेद पहले बतलाए जा चुके है । उनका जितने-जितने अंश मे निरोध होगा उतने-उतने अंश में संवर कहा जाएगा। आध्यात्मिक विकास का क्रम ही आस्रवनिरोध के विकास पर आश्रित है । अतः जैसे-जैसे आस्रव-निरोध बढ़ता जाता है. वैसे-वैसे गुणस्थान' की भी वृद्धि होती है ।
संवर के उपाय स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः । २।
तपसा निर्जरा च।३। वह संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र से होता है।
तप से संवर और निर्जरा होती है।
१. जिस गुणस्थान मे मिथ्यात्व, अविरति आदि चार हेतुओ मे से जो-जो हेतु सम्भव हो और उनके कारण जिन-जिन कर्म-प्रकृतियो का बन्ध सम्भव हो उन हेतुओ और तज्जन्य कर्मप्रकृतियो के बन्ध का विच्छेद ही उस गुणस्थान से ऊपर के गुणस्थान का रावर है अर्थात् पूर्व-पूर्ववती गुणस्थान के आस्रव या तज्जन्य बन्ध का अभाव ही उत्तर-उत्तरवतों गुणस्थान का सवर है। इसके लिए देखे-दूसरे कर्मग्रन्थ मे बन्ध. करण और चौथा कर्मग्रन्थ ( गाथा ५१-५८ ) तथा प्रस्तुत सूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका।
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