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पुण्य और पाप प्रकृतियाँ भी बँधता है । इतना ही अन्तर है कि जैसे प्रकृष्ट शुभ परिणाम से होनेवाला शुभ अनुभाग प्रकृष्ट होता है और अशुभ अनुभाग निकृष्ट होता है वैसे ही प्रकृष्ट अशुभ परिणाम से बँधनेवाला अशुभ अनुभाग प्रकृष्ट होता है और शुभ अनुभाग निकृष्ट होता है।
पुण्यरूप में प्रसिद्ध ४२ प्रकृतियाँ' ---सातावेदनीय, मनुष्यायुष्क, देवायुष्क, तिर्यच-आयुष्क, मनुष्यगति, देवगति, पचेन्द्रियजाति; औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण ये पाँच शरीर; औदारिक-अंगोपांग, वैक्रिय-अंगोपांग, आहारकअंगोपांग, समचतुरस्र-संस्थान, वज्रर्षभनाराच-संहनन, प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श; मनुष्यानुपूर्वी, देवानुपूर्वी, अगुरुलघु, पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश.कीर्ति, निर्माणनाम, तीर्थकरनाम और उच्चगोत्र ।
पापरूप में प्रसिद्ध ८२ प्रकृतियाँ-पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, नारकायुष्क, नरकगति, तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, प्रथम संहनन को छोड़ शेष पाँच संहनन-अर्धवज्रर्षभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका और सेवार्त; प्रथम संस्थान को छोड शेष पाँच संस्थान-न्यग्रोधपरिमण्डल, सादि, कुब्ज, वामन और हुड, अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, नारकानुपूर्वी, तियंचानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दु स्वर, अनादेव, अयशःकीति, नीचगोत्र और पांच अन्तराय । २६ ।
१. ये ४२ पुण्य-प्रकृतियाँ कर्मप्रकृति व नवतत्त्व आदि अनेक ग्रन्यो में प्रसिद्ध है । दिगम्बर ग्रन्यो मे भो ये ही प्रकृतियाँ पुण्यरूप से प्रसिद्ध है। प्रस्तुत सत्र से पुण्यरूप में निर्दिष्ट सम्यक्त्व, हास्य, रति और पुरुषवेद व चार प्रकृति यो का अन्य किसी ग्रन्थ में पुण्यरूप से वर्णन नही है । __ इन चार प्रकृतियो को पुण्यरूप माननेवाला मतविशेष बहुत प्राचीन है, ऐसा ज्ञात होता है, क्योकि प्ररतुत सत्र में उपलब्ध इनके उल्लेख के उपरांत भाष्यवृत्तिकार ने भी मतभेद को दरसानेवाली कारिकाएँ दी है और लिखा है कि इस मंतव्य का रहस्य सम्प्रदाय-विच्छेद के कारण हमें मालूम नहीं होता। हाँ, चतुर्दशपूर्वधारी जानते होगे।
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