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८. २५ ]
प्रदेशबन्ध प्रकृतिसंक्रमण की भांति ही बन्धकालीन रस और स्थिति में भी बाद मे अध्यवसाय के कारण परिवर्तन हो सकता है, तोवरस मन्द और मन्दरस तीव्र हो सकता है । इसी प्रकार स्थिति भी उत्कृष्ट से जघन्य और जघन्य से उत्कृष्ट हो सकती है।
फलोदय के बाद मुक्त कर्म की दशा--अनुभावानुसार कर्म के तीव्र-मन्द फल का वेदन हो जाने पर वह कर्म आत्मप्रदेशो से अलग हो जाता है अर्थात् फिर संलग्न नही रहता। यही कर्मनिवृत्ति-निर्जरा है। जैसे कर्म की निर्जरा उसके फल-वेदन से होती है वैसे ही प्रायः तप से भी होती है । तप के बल से अनुभावानुसार फलोदय के पहले ही कर्म आत्मप्रदेशों से अलग हो सकते है । यह बात सूत्र में 'च' शब्द द्वारा व्यक्त की गई है । २२-२४ ।
प्रदेशबन्ध नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाढस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः । २५ ।
कर्म ( प्रकृति ) के कारणभूत सूक्ष्म, एकक्षेत्र को अवगाहन करके रहे हुए तथा अनन्तानन्त प्रदेशवाले पुद्गल योगविशेष से सभी ओर से सभी आत्मप्रदेशों में बन्ध को प्राप्त होते हैं।
प्रदेशबन्ध एक प्रकार का सम्बन्ध है और उस सम्बन्ध के दो आधार हैकर्मस्कन्ध और आत्मा । इनके विषय मे जो आठ प्रश्न उत्पन्न होते है उन्ही का उत्तर इस सूत्र मे दिया गया है। प्रश्न इस प्रकार है :
१. जब कर्मस्कन्धों का बन्ध होता है तब उनमे क्या निर्माण होता है ? २ इन स्कन्धों का ऊँचे, नीचे या तिरछे किन आत्मप्रदेशों द्वारा ग्रहण होता है ? ३. सभी जीवों का कर्मबन्ध समान होता है या असमान ? यदि असमान होता है तो क्यों ? ४. वे कर्मस्कन्ध स्थूल होते है या सूक्ष्म ? ५. जीव-प्रदेशवाले क्षेत्र मे रहे हुए कर्मस्कन्धों का ही जीवप्रदेश के साथ बन्ध होता है या उससे भिन्न क्षेत्र में रहे हुए का भी होता है ? ६. वे बन्ध के समय गतिशील होते है या स्थितिशील ? ७. उन कर्मस्कन्धो का सम्पूर्ण आत्म-प्रदेशों मे बन्ध होता है या कुछ ही आत्मप्रदेशों में ? ८. वे कर्मस्कन्ध संख्यात, असंख्यात, अनन्त या अनन्तानन्त मे से कितने प्रदेशवाले होते है ?
इन आठों प्रश्नों के सूत्रगत उत्तर क्रमश. इस प्रकार है :
१. आत्मप्रदेशों के साथ बँधनेवाले पुद्गलस्कन्धों में कर्मभाव अर्थात् ज्ञानावरणत्व आदि प्रकृतियां बनती है । सारांश यह है कि वैसे स्कन्धों से उन प्रकृतियों
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