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तत्त्वार्थसूत्र
[७. २३-२४ विपाक अर्थात् विविध प्रकार के फल देने की शक्ति ही अनुभाव है।
अनुभाव का वेदन भिन्न-भिन्न कर्म की प्रकृति अथवा स्वभाव के अनुसार किया जाता है।
उससे अर्थात् वेदन से निर्जरा होती है।
अनुभाव और उसका बन्ध--बन्धनकाल में उसके कारणभूत काषायिक अध्यवसाय के तीव्र मन्द भाव के अनुसार प्रत्येक कर्म मे तीव्र-मन्द फल देने की शक्ति उत्पन्न होती है। फल देने का यह सामर्थ्य ही अनुभाव है और उसका निर्माण ही अनुभावबन्ध है ।
अनुभाव का फल-अनुभाव समय आने पर ही फल देता है, परन्तु इस विषय में इतना ज्ञातव्य है कि प्रत्येक अनुभाव (फलप्रद )-शक्ति स्वयं जिस कर्म मे निष्ठ हो उस कर्म के स्वभाव (प्रकृति ) के अनुसार ही फल देती है, अन्य कर्म के स्वभावानुसार नहीं। उदाहरणार्थ ज्ञानावरण कर्म का अनुभाव उस कर्म के स्वभावानुसार ही तीव्र या मन्द फल देता है-वह ज्ञान को ही आवृत करता है, दर्शनावरण, वेदनीय आदि अन्य कर्म के स्वभावानुसार फल नही देता । साराश यह है कि वह न तो दर्शनशक्ति को आवृत करता है और न सुख-दु ख के अनुभाव आदि कार्य को ही उत्पन्न करता है । इसी प्रकार दर्शनावरण का अनुभाव दर्शन-शक्ति को तीव्र या मन्द रूप से आवृत करता है, ज्ञान के आच्छादन आदि अन्य कर्मो के कार्यो को नहीं करता।
कर्म के स्वभावानुसार विपाक के अनुभावबन्ध का नियम भी मूलप्रकृतियों पर ही लागू होता है, उत्तरप्रकृतियों पर नहीं। क्योंकि किसी भी कर्म की एक उत्तरप्रकृति बाद मे अध्यवसाय के बल से उसी कर्म की अन्य उत्तरप्रकृति के रूप में बदल जाती है, जिससे पहली का अनुभाव परिवर्तित उत्तरप्रकृति के स्वभावानुसार तीव्र या मन्द फल देता है। जैसे मतिज्ञानावरण जब श्रुतज्ञानावरण आदि सजातीय उत्तरप्रकृति के रूप मे संक्रमण करता है तब मतिज्ञानावरण का अनुभाव भी श्रुतज्ञानावरण आदि के स्वभावानुसार ही श्रुतज्ञान या अवधि आदि ज्ञान को आवृत करने का काम करता है । लेकिन उत्तरप्रकृतियों मे कितनी ही ऐसी है जो सजातीय होने पर भी परस्पर संक्रमण नहीं करती। जैसे दर्शनमोह और चारित्रमोह मे से दर्शनमोह चारित्रमोह के रूप मे अथवा चारित्रमोह दर्शनमोह के रूप में संक्रमण नहीं करता। इसी प्रकार नारकआयुष्क तिर्यंचआयुष्क के रूप मे अथवा अन्य किसी आयुष्क के रूप मे संक्रमण नही करता।
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