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तत्त्वार्थसूत्र
[८.६-१४ से प्राणी स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण करे वह पर्याप्त, इसके विपरीत जिसके उदय से स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण न कर सके वह अपर्याप्त है। ७-८. जिस कर्म के उदय से जीव को भिन्न-भिन्न शरीर की प्राप्ति हो वह प्रत्येक और जिसके उदय से अनन्त जीवों का एक ही साधारण शरीर हो वह साधारण है । ९-१०. जिस कर्म के उदय से हड्डी, दाँत आदि स्पिर अवयव प्राप्त हों वह स्थिर और जिसके उदय से जिह्वा आदि अस्थिर अवयव प्राप्त हो वह अस्थिर है। ११-१२. जिस कर्म के उदय से नाभि के ऊपर के अवयव प्रशस्त हों वह शुभ और जिस कर्म के उदय से नाभि के नीचे के अवयव अप्रशस्त हों वह अशुभ है। १३-१४. जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर श्रोता में प्रीति उत्पन्न करे वह सुस्वर और जिस कर्म के उदय से श्रोता मे अप्रीति उत्पन्न हो वह दु स्वर है। १५-१६. जिस कर्म के उदय से कोई उपकार न करने पर भी जो सबको प्रिय लगे वह सुभग और जिस कर्म के उदय से उपकार करने पर भी सबको प्रिय न लगे वह दुर्भग है। १७-१८. जिस कर्म के उदय से वचन बहुमान्य हो वह आदेय और जिस कर्म के उदय से वैसा न हो वह अनादेय है। १९-२० जिस कर्म के उदय से दुनिया में यश व कीनि प्राप्त हो वह यशःकीति और जिस कर्म के उदय से यश व कीति प्राप्त न हो वह अयशःकीति है।
अाठ प्रत्येकप्रकृतियाँ--१. जिस कर्म के उदय से शरीर गुरु या लघु परिणाम को न पाकर अगुरुलघु के रूप में परिणत होता है वह अगुरुलघु है। २. प्रतिजिह्वा, चौरदन्त, रसौली आदि उपघातकारी अवयवों को प्राप्त करानेवाला कर्म उपघात है। ३. दर्शन या वाणी से दूसरे को निष्प्रभ कर देनेवाली दशा प्राप्त करानेवाला कर्म पराघात है । ४. श्वास लेने व छोड़ने की शक्ति का नियामक कर्म श्वासोच्छवास है। ५-६. अनुष्ण शरीर मे उष्ण प्रकाश का नियामक कर्म आतप और शीत प्रकाश का नियामक कर्म उद्योत है । ७. शरीर में अङ्ग-प्रत्यङ्गों को यथोचित स्थान मे व्यवस्थित करनेवाला कर्म निर्माण है। ८. धर्म व तीर्थ प्रवर्तन करने की शक्ति देनेवाला कर्म तीर्थंकर है। १२ ।
गोत्र-कर्म की दो प्रकृतियां--१. प्रतिष्ठा प्राप्त करानेवाले कुल में जन्म दिलानेवाला कर्म उच्चगोत्र और २. शक्ति रहने पर भी प्रतिष्ठा न मिल सके ऐसे कुल मे जन्म दिलानेवाला कर्म मीचगोत्र है । १३ ।
अन्तराय कर्म की पाँच प्रकृतियॉ--जो कर्म कुछ भी देने, लेने, एक बार या बार-बार भीगने और सामर्थ्य में अन्तराय ( विघ्न) पैदा कर देते है बे क्रमशः दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय
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