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२०४ तत्त्वार्यसूत्र
[८. २६ का निर्माण होता है । इसीलिए उन स्कन्धों को सभी प्रकृतियो का कारण कहा गया है । २. ऊँची, नीची और तिरछी सभी दिशाओं मे रहे हुए आत्मप्रदेशों के द्वारा कर्मस्कन्धों का ग्रहण होता है, किसी एक ही दिशा के आत्मप्रदेशों द्वारा नही । ३ सभी जीवों के कर्मबन्ध के असमान होने का कारण यह है कि सभी के मानसिक, वाचिक और कायिक योग ( व्यापार ) समान नहीं होते । यही कारण है कि योग के तरतमभाव के अनुसार प्रदेशबन्ध मे भी तरतमभाव आ जाता है । ४. कर्मयोग्य पुद्गलस्कन्ध स्थूल ( बादर ) नही होते, सूक्ष्म ही होते है, वैसे सूक्ष्मस्कन्धों का ही कर्मवर्गणा मे से ग्रहण होता है। ५. जीवप्रदेश के क्षेत्र में रहे हुए कर्मस्कन्धों का ही बन्ध होता है, उसके बाहर के क्षेत्र के कर्मस्कन्धों का नहीं। ६. केवल स्थिर होने से ही बन्ध होता है, क्योकि गतिशील स्कन्ध अस्थिर होने से बन्ध को प्राप्त नहीं होते। ७. प्रत्येक कर्म के अनन्त स्कन्धों का सभी आत्मप्रदेशों मे बन्ध होता है। ८. बँधनेवाले समस्त कर्मयोग्य स्कन्ध अनन्तानन्त परमाणुओं के ही बने होते है, कोई भी संख्यात, असंख्यात या अनन्त परमाणुओं का बना हुआ नही होता । २५ ।
पुण्य और पाप प्रकृतियाँ सद्वैद्यसम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्राणि
पुण्यम् । २६ । सातावेदनीय, सम्यक्त्व-मोहनीय, हास्य, रति, पुरुषवेद, शुभआयु, शुभनाम और शुभगोत्र ये प्रकृतियाँ पुण्यरूप हैं ( शेष सभी प्रकृतियाँ पापरूप हैं)।
जिन कर्मों का बन्ध होता है उनका विपाक केवल शुभ या अशुभ ही नही होता अपितु अध्यवसायरूप कारण की शुभाशुभता के निमित्त से वे शुभाशुभ दोनों प्रकार के होते है । शुभ अध्यवसाप से निमित विपाक शुभ ( इष्ट ) होता है और अशुभ अध्यवसाय से निर्मित विपाक अशुभ (अनिष्ट ) होता है । जिस परिणाम में संक्लेश जितना कम होगा वह परिणाम उतना ही अधिक शुभ और जिस परिणाम में संक्लेश जितना अधिक होगा वह परिणाम उतना ही अशुभ होगा। कोई भी एक परिणाम ऐसा नहीं है जिसे केवल शुभ या केवल अशुभ कहा जा सके । प्रत्येक परिणाम शुभ-अशुभ अथवा उभयरूप होने पर भी उसमे शुभत्व-अशुभत्व का व्यवहार गौणमुख्यभाव की अपेक्षा से किया जाता है, इसीलिए जिस शुभ परिणाम से पुण्य-प्रकृतियों मे शुभ अनुभाग बंधता है उसी परिणाम से पाप-प्रकृतियों मे अशुभ अनुभाग भी बँधता है। इसके विपरीत जिस परिणाम से अशुभ अनुभाग बघता है उसी परिणाम से पुण्य-प्रकृतियों में शुभ अनुभाग
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