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मूलप्रकृति-भेदो का नाम-निर्देश कर्मपुद्गल जीव द्वारा ग्रहण किए जाने पर कर्मरूप परिणाम को प्राप्त होते है। इसका अर्थ यही है कि उसी समय उसमे चार अंशो का निर्माण होता है और वे अंश ही बन्ध के प्रकार है। उदाहरणार्थ बकरी, गाय, भैस आदि द्वारा खाई हुई घास आदि चीजें जब दूध के रूप में परिणत होती है तब उसमे मधुरता का स्वभाव निर्मित होता है; वह स्वभाव अमुक समय तक उसी रूप में बना रह सके ऐसी कालमर्यादा उसमे निर्मित होती है; इस मधुरता मे तीत्रता, मन्दता आदि विशेषताएँ भी होती है और साथ ही इस दूध का पौद्गलिक परिणाम भी बनता है । इसी प्रकार जीव द्वारा ग्रहण होकर उसके प्रदेशो मे संश्लेष को प्राप्त कर्मपुद्गलों में भी चार अंशो का निर्माण होता है। वे अंश ही प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेश है।
१. कर्मपुद्गलों मे ज्ञान को आवरित करने, दर्शन को रोकन, सुख-दुख देने आदि का जो स्वभाव बनता है वह स्वभावनिर्माण ही प्रकृतिबन्ध है। २. स्वभाव बनने के साथ ही उस स्वभाव से अमक काल तक च्यत न होने की मर्यादा भी पुद्गलों मे निर्मित होती है, यह कालमर्यादा का निर्माण ही स्थितिबन्ध है। ३. स्वभावनिर्माण के साथ ही उसमे तीव्रता, मन्दता आदि रूप में फलानुभव करानेवाली विशेषताएं बंधती है, यही अनुभावबन्ध है । ४. ग्रहण किए जाने पर भिन्न-भिन्न स्वभाव मे परिणत होनेवाली कर्मपुद्गलराशि स्वभावानुसार अमुक-अमुक परिमाण में बँट जाती है, यह परिमाणविभाग ही प्रदेशबन्ध है ।
बन्ध के इन चार प्रकारों मे से पहला और अन्तिम दोनों योग के आश्रित हैं, क्योंकि योग के तरतमभाव पर ही प्रकृति और प्रदेश बन्ध का तरतमभाव अवलम्बित है। दूसरा और तीसरा प्रकार कषाय के आश्रित है, क्योकि कषाय की तीव्रता-मन्दता पर ही स्थिति और अनुभाव बन्ध की अल्पाधिकता अवलम्बित है । ४।
__ मूलप्रकृति-भेदो का नामनिर्देश आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुष्कनामगोत्रान्तरायाः । ५ ।
प्रथम अर्थात् प्रकृतिबन्ध ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्क, नाम, गोत्र और अन्तरायरूप है।
अध्यवसाय-विशेष से जीव द्वारा एक ही बार मे गृहीत कर्मपुद्गलराशि मे एक साथ आध्यवसायिक शक्ति की विविधता के अनुसार अनेक स्वभाव निर्मित होते है । वे स्वभाव अदृश्य होते है, फिर भी उनका परिगणन उनके कार्य प्रभावको देखकर किया जा सकता है। एक या अनेक जीवों पर होनेवाले कर्म के
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