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तत्त्वार्थसूत्र
[ ८. २-४ कषाय, योग-कषाय अर्थात् समभाव की मर्यादा तोड़ना । योग का अर्थ है मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति । ___ छठे अध्याय में वर्णित तत्प्रदोष आदि बन्धहेतुओं और यहाँ पर निर्दिष्ट मिथ्यात्व आदि बन्धहेतुओ में इतना ही अन्तर है कि तत्प्रदोषादि प्रत्येक कर्म के विशिष्ट बन्धहेतु होने से विशेष है, जब कि मिथ्यात्व आदि समस्त कर्मों के समान बन्धहेतु होने से सामान्य है । मिथ्यात्व से लेकर योग तक पाँचों हेतुओं मे से जहाँ पूर्व-पूर्व के बन्धहेतु होगे वहाँ बाद के भी सभी होंगे यह नियम है, जैसे मिथ्यात्व के होने पर अविरति आदि चार और अविरति के होने पर प्रमाद आदि शेष तीन अवश्य होंगे। परन्तु जब उत्तर बन्धहेतु होगा तब पूर्व बन्धहेतु हो और न भी हो, जैसे अविरति के होने पर पहले गुणस्थान मे मिथ्यात्व होगा परन्तु दूसरे, तीसरे, चौथे गुणस्थान में अविरति के होने पर भी मिथ्यात्व नही रहता । इसी प्रकार दूसरे हेतुओं के विषय मे भी समझना चाहिए । १ ।
बन्ध का स्वरूप सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते । २।
स बन्धः । ३। कषाय के सम्बन्ध से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों का ग्रहण करता है। वह बन्ध है।
पुद्गल की अनेक वर्गणाएँ (प्रकार ) है। उनमें से जो वर्गणाएँ कर्मरूप परिणाम को प्राप्त करने की योग्यता रखती है उन्ही को जीव ग्रहण करके अपने आत्मप्रदेशों के साथ विशिष्ट रूप से जोड़ देता है, अर्थात् स्वभाव से जीव अमूर्त होने पर भी अनादिकाल से कर्मसम्बन्धवाला होने से मूर्तवत् हो जाता है । अतः वह मूर्त कर्मपुद्गलो का ग्रहण करता है। जैसे दीपक बत्ती द्वारा तेल को ग्रहण करके अपनी उष्णता से उसे ज्वाला मे परिणत कर लेता है वैसे ही जीव काषायिक विकार से योग्य पुद्गलो को ग्रहण करके उन्हे कर्मरूप में परिणत कर लेता है।
आत्मप्रदेशो के साथ कर्मरूप परिणाम को प्राप्त पुद्गलो का यह सम्बन्ध ही बन्ध कहलाता है। ऐसे बन्ध मे मिथ्यात्व आदि अनेक निमित्त होते है, फिर भी यहाँ कषाय के सम्बन्ध से पुद्गलों का ग्रहण होने की बात अन्य हेतुओ की अपेक्षा कषाय की प्रधानता प्रदर्शित करने के लिए ही कही गई है । २-३ ।
बन्ध के प्रकार प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधयः । ४। प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेश ये चार उसके (बन्ध के ) प्रकार हैं।
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