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८. ६-१४ ]
उत्तरप्रकृति-भेदों की संख्या और नामनिर्देश
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आठ मूलप्रकृतियों के क्रमशः पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, बयालीस, दो तथा पाँच भेद है ।
मति आदि पाँच ज्ञानो के आवरण पाँच ज्ञानावरण हैं ।
चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन इन चारों के आवरण तथा निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि - रूप पाँच वेदनीय -- ये नौ दर्शनावरणीय हैं ।
प्रशस्त ( सुखवेदनीय ) और अप्रशस्त ( दु.खवेदनीय ) - ये दो वेदनीय हैं ।
दर्शनमोह, चारित्रमोह, कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय इन चारों के क्रमशः तीन, दो, सोलह और नौ भेद है । सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, तदुभय ( सम्यक्त्वमिथ्यात्व ) ये तीन दर्शनमोहनीय के भेद है । कषाय और नोकषाय ये दो चारित्रमोहनीय के भेद है । इनमें से क्रोध, मान, माया और लोभ ये प्रत्येक अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन के रूप में चार-चार प्रकार के होने से कषायचारित्रमोहनीय के सोलह भेद बनते हैं तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये नौ नोकषायचारित्रमोहनीय के भेद हैं !
नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव – ये चार आयु के भेद हैं ।
गति, जाति, शरीर, अङ्गोपाङ्ग, निर्माण, बन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, विहायोगति तथा साधारण और प्रत्येक, स्थावर और त्रम, दुभंग और सुभग, दु.स्वर और सुस्वर, अशुभ और शुभ, बादर और सूक्ष्म, अपर्याप्त और पर्याप्त, अस्थिर और स्थिर, अनादेय और आदेय, अयश और यश एवं तोर्थकरत्व - ये बयालीस नामकर्म के प्रकार हैं ।
उच्च और नीच - ये दो गोत्रकर्म के प्रकार है । दान आदि के पांच अन्तराय है ।
ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म को प्रकृतियाँ- - १. मति आदि पाँच ज्ञान और चक्षुर्दर्शन आदि चार दर्शनों का वर्णन पहले हो चुका है ।" उनमे से प्रत्येक आवरण करनेवाले स्वभाव से युक्त कर्म क्रमशः मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण,
१. देखें – अ० १, सूत्र ९ से ३३, अ० २, सू० है |
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