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तत्त्वार्थसूत्र
[८. ६-१४
असंख्य प्रभाव अनुभव मे आते है। वास्तव मे इन प्रभावों के उत्पादक स्वभाव भी असंख्यात हैं । फिर भी संक्षेप मे वर्गीकरण करके उन सभी को आठ भागों में बाँट दिया गया है। यही मलप्रकृतिबन्ध है। इन्ही आठ मूलप्रकृति-भेदों का नामनिर्देश यहाँ किया गया है। वे है-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुक, नाम, गोत्र और अन्तराय ।
१. ज्ञानावरण--जिसके द्वारा ज्ञान (विशेषबोध ) का आवरण हो। २ दर्शनावरणजिसके द्वारा दर्शन ( सामान्यबोध ) का आवरण हो । ३. वेदनीय-जिससे सुख या दु.ख का अनुभव हो। ४. मोहनीय-जिससे आत्मा मोह को प्राप्त हो। ५. आयुष्क-जिससे भव धारण हो। ६. नाम-जिससे विशिष्ट गति, जाति आदि की प्राप्ति हो । ७. गोर-जिससे ऊँचपन या नीचपन मिले। ८. अन्तराय-जिससे दान के देने-लेने तथा भोगादि मे विघ्न पड़े।
कर्म के विविध स्वभावों के संक्षेप मे आठ भाग है, फिर भी विस्तृतरुचि के जिज्ञासुओं के लिए मध्यममार्ग का अवलंबन करके उन आठ का पुनः दूसरे प्रकार से वर्णन किया गया है, जो उत्तरप्रकृतिभेदो के नाम से प्रसिद्ध है । ऐसे उत्तरप्रकृति-भेद ९७ है । वे मूलप्रकृति के क्रम से आगे बतलाए गए है । ५।
उत्तरप्रकृति-भेदो की संख्या और नामनिर्देश पञ्चनवद्वयष्टाविंशतिचतुद्विचत्वारिंशद्विपञ्चभेदा यथाक्रमम् । ६। मत्यादीनाम् । ७।। चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगद्धिवेदनीयानि च । ८। सदसद्वद्ये।९। दर्शनचारित्रमोहनीयकषायनोकषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विषोडशनवभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयानि कषायनोकषायावनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोभा हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसकवेदाः । १०। नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि ।११।। गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गनिर्माणबन्धनसङ्घातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगन्धवर्णानुपूर्व्यगुरुलघूपधातपराघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयः प्रत्येकशरीरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तस्थिरादेययशांसि सेतराणि तीर्थकृत्त्वं च । १२॥ उच्चैर्नीचैश्च । १३ । दानादीनाम् । १४॥
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