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बन्ध
आस्रव के विवेचन के प्रसंग से व्रत और दान का वर्णन ..रने के पश्चात् अब इस आठवे अध्याय मे बन्धतत्त्व का वर्णन किया जाता है ।
बन्धहेतुओं का निर्देश मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः। १ । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-ये पाँच बन्ध के हेतु हैं।
बन्ध के स्वरूप का वर्णन आगे सूत्र २ मे आया है। यहाँ उसके हेतुओं का निर्देश है । बन्ध के हेतुओं की संख्या के विषय में तीन परम्पराएँ दिखाई देती है । एक परम्परा के अनुसार कषाय और योग ये दो ही बन्धहेतु है। दूसरी परम्परा में मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार बन्धहेतु माने गए है । तीसरी परम्परा में उक्त चार हेतुओं मे प्रमाद को बढाकर पाँच बन्धहेतुओं का वर्णन है। संख्या और उसके कारण नामों में भेद दिखाई देने पर भी तात्त्विक दृष्टि से इन परम्पराओं मे कोई अन्तर नही है । प्रमाद एक तरह का असंयम ही है, अतः वह अविरति या कषाय के अन्तर्गत ही है । इसी दृष्टि से कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थों में चार बन्धहेतु कहे गए हैं। मिथ्यात्व और असंयम ये दोनों कषाय के स्वरूप से भिन्न नही पडते, अतः कषाय और योग को ही बन्धहेतु कहा गया है। __ प्रश्न--सचमुच यदि ऐसी ही बात है तब प्रश्न होता है कि उक्त संख्याभेद की विभिन्न परम्पराओं का आधार क्या है ?
उत्तर-कोई भी कर्मबन्ध हो, उस समय उसमे अधिक-से-अधिक जिन चार अंशो का निर्माण होता है, कषाय और योग ये दोनो ही उनके अलग-अलग कारण है, क्योंकि प्रकृति एवं प्रदेश अंशों का निर्माण योग से होता है एवं स्थिति तथा अनभागरूप अंशो का निर्माण कषाय से । इस प्रकार एक ही कर्म मे उत्पन्न होनेवाले उक्त चार अंशों के कारणों का विश्लेषण करने के विचार से शास्त्र मे
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