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१९० तत्त्वार्थसूत्र
[७. ३३-३४ प्रवृत्ति करना। ५. स्मृत्यनुपस्थापन-पौषध कब और कैसे करना या न करना एवं किया है या नहीं इत्यादि का स्मरण न रहना । २९ ।
__ मोगोपभोगव्रत के प्रतिचार--१. सचित्त-आहार-किसी भी वनस्पति आदि सचेतन पदार्थ का आहार करना । २. सचित्तसम्बद्ध आहार-कड़े बीज या गुठली आदि सचेतन पदार्थ से युक्त बेर या आम आदि पके फलों को खाना । ३. सचित्तसंमिश्र आहार-तिल, खसखस आदि सचित्त वस्तु से मिश्रित लड्डू आदि का भोजन अथवा चींटी, कुन्थु आदि से मिश्रित वस्तु का सेवन करना। ४. अभिषवआहार-किसी भी प्रकार के एक मादक द्रव्य का सेवन करना अथवा विविध द्रव्यों के मिश्रण से उत्पन्न मद्य आदि रस का सेवन करना । ५. दुष्पक्व-आहारअधपके या ठीक से न पके हुए पदार्थ को खाना । ३०।
प्रतिथिसंविभागवत के प्रतिचार--१. सचिसविक्षेप-खाने-पीने की देने योग्य वस्तु को काम मे न आने जैसी बना देने की बुद्धि से किसी सचेतन वस्तु में रख देना। २. सचित्तपिधान-इसी प्रकार देय वस्तु को सचेतन वस्तु से ढक देना। ३. परव्यपदेश-अपनो देय वस्तु को दूसरे की बताकर उसके दान से अपने को मानपूर्वक बचा लेना । ४. मात्सर्य-दान देते हुए भी आदर न रखना अथवा दूसरे के दानगुण की ईर्ष्या से दान देने के लिए तत्पर होना । ५. कालातिक्रम-किसी को कुछ देना न पड़े इस आशय से भिक्षा का समय न होने पर भी खा पी लेना । ३१ ।
संलेखनावत के अतिचार--१. जीविताशंसा--पूजा, सत्कार आदि विभूति देखकर लालचवश जीवन की अभिलाषा । २. मरणाशंसा-सेवा, सत्कार आदि करने के लिए किसी को पास आते न देखकर उद्वग के कारण मृत्यु को चाहना । ३. मित्रानुराग-मित्रों पर या मित्रतुल्य पुत्रादि पर स्नेह-बन्धन रखना। ४. सुखानुबन्ध--अनुभूत सुखों का स्मरण करके उन्हे ताजा बनाना । ५. निदानकरण-- तप व त्याग का बदला किसी भी तरह के भोग के रूप मे चाहना। __ ऊपर वर्णित अतिचारों का यदि जानबूझकर अथवा वक्रतापूर्वक सेवन किया जाय तब तो वे व्रत के खण्डनरूप होकर अनाचार कहलाएंगे और भूल से असावधानीपूर्वक सेवन किए जाने पर अतिचार कहे जाएँगे । ३२ ।
दान तथा उसकी विशेषता अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानम् । ३३ ।
विधिव्यवातपात्रविशेषातद्विशेषः। ३४ । अनुग्रह के लिए अपनी वस्तु का त्याग करना दान है।
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