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१८८ तत्त्वार्थसूत्र
[७. १९-३२ या तराजू आदि से लेन-देन करना। ५. प्रतिरूपकव्यवहार--असली के बदले नकली वस्तु चलाना । २२ ।
ब्रह्मचर्यवत' के अतिचार-१. परविवाहकरण---निजो संतति के उपरात कन्यादान के फल की इच्छा से अथवा स्नेह-सम्बन्ध से दूसरे की संतति का विवाह करना । २. इत्वरपरिगृहीतागमन--किसी दूसरे के द्वारा स्वीकृत अमुक समय तक वेश्या या वैसी साधारण स्त्री का उसी कालावधि मे भोग करना । ३. अपरिगृहीतागमन--वेश्या का, जिसका पति विदेश चला गया है उस वियोगिनी स्त्री का अथवा किसी अनाथ या किसी पुरुष के कब्जे मे न रहनेवाली स्त्री का उपभोग करना। ४. अनंगक्रीड़ा--अस्वाभाविक अर्थात् सृष्टिविरुद्ध काम का सेवन । ५. तीव्रकामाभिलाष--बार-बार उद्दीपन करके विविध प्रकार से कामक्रीड़ा करना । २३ ।
अपरिग्रहवत के अतिचार-१. क्षेत्रवास्तु-प्रमाणातिक्रम--जो जमीन खेतीबाड़ी के योग्य हो वह क्षेत्र और जो रहने योग्य हो वह वास्तु, इन दोनों का प्रमाण निश्चित करने के बाद लोभवश मर्यादा का अतिक्रमण करना। २. हिरण्यसुवर्ण-प्रमाणातिक्रम--गढ़े हुए या बिना गढे हुए चाँदी और स्वर्ण दोनों के स्वीकृत प्रमाण का उल्लंघन करना । ३. धनधान्य-प्रमाणातिक्रम-गाय, भैस आदि पशुधन और गेहूँ, बाजरा आदि धान्य के स्वीकृत प्रमाण का उल्लंघन करना। ४. दासीदास-प्रमाणातिक्रम---नौकर, चाकर आदि कर्मचारियो के प्रमाण का अतिक्रमण करना। ५. कुप्यप्रमाणातिक्रम-बर्तनो और वस्त्रों के प्रमाण का अतिक्रमण करना । २४ ।
दिग्विरमरणवत के अतिचार-१. ऊर्ध्वव्यतिक्रम-वृक्ष, पर्वत आदि पर चढ़ने को ऊँचाई के स्वीकृत प्रमाण का लोभ आदि विकार के कारण भंग करना। २-३. अधो तथा तिर्यग्व्यतिक्रम-इसी प्रकार नीचे तथा तिरछे जाने के प्रमाण का मोहवश भङ्ग करना । ४. क्षेत्रवृद्धि--भिन्न-भिन्न दिशाओं का भिन्न-भिन्न प्रमाण स्वीकार करने के बाद कम प्रमाणवाली दिशा में मुख्य प्रसंग आ पड़ने पर दूसरी दिशा के स्वीकृत प्रमाण मे से अमुक भाग घटाकर इष्ट दिशा के प्रमाण मे वृद्धि करना । ५. स्मृत्यन्तर्धान-~-प्रत्येक नियम के पालन का आधार स्मृति है, यह जानकर भी प्रमाद या मोह के कारण नियम के स्वरूप या उसकी मर्यादा को भूल जाना । २५ ।
१. इसकी विशेष व्याख्या के लिए देखें-'जैन दृष्टिए ब्रह्मचर्य' नामक गुजराती
निबन्ध ।
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