________________
१८६
तत्त्वार्थसूत्र
[७. १९-३२ क्षेत्र और वास्तु, हिरण्य और सुवर्ण,धन और धान्य, दासी और दास एवं कुप्य के प्रमाण का अतिक्रम ये पांच अतिचार पाँचवें परिग्रहपरिमाण अणुव्रत के हैं।
ऊर्ध्वव्यतिक्रम, अधोव्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तर्धान ये पाँच अतिचार छठे दिग्विरति व्रत के हैं।
आनयनप्रयोग, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात, पुद्गलक्षेप ये पाँच अतिचार सातवें देशविरति व्रत के है। ____ कन्दर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, असमीक्ष्य-अधिकरण और उपभोग का आधिक्य ये पाँच अतिचार आठवें अनर्थदण्डविरमण व्रत के हैं । ___ कायदुष्प्रणिधान, वचनदुष्प्रणिधान, मनोदुष्प्रणिधान, अनादर और स्मृति का अनुपस्थापन ये पाँच अतिचार सामायिक व्रत के हैं ।
अप्रत्यवेक्षित और अप्रमार्जित में उत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षित और अप्रमाजित में आदान-निक्षेप, अप्रत्यवेक्षित और अप्रमाजित सस्तार का उपक्रम, अनादर और स्मृति का अनुपस्थापन ये पांच अतिचार पोषध व्रत के हैं।
सचित्त आहार, सचित्तसम्बद्ध आहार, सचित्तसंमिश्न आहार, अभिषव आहार और दुष्पक्व आहार ये पांच अतिचार भोगोफ्भोग व्रत के हैं।
सचित्तनिक्षेप, सचित्तपिधान, परव्यपदेश, मात्सर्य और कालातिक्रम ये पांच अतिचार अतिथिसंविभाग व्रत के हैं । __ जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रामुराग, सुखानुबन्ध और निदानकरण ये पाँच अतिचार मारणान्तिक संलेखना के हैं।
श्रद्धा और ज्ञान-पूर्वक स्वीकार किए जानेवाले नियम को व्रत कहते है । इसके अनुसार श्रावक के बारह व्रत 'व्रत' शब्द मे आ जाते है । फिर भी यहां व्रत और शील इन दो शब्दों के प्रयोग द्वारा यह निर्देश किया गया है कि चारित्र-धर्म के मूल नियम अहिंसा-सत्य आदि पांच है, दिग्विरमण आदि शेष नियम इन मूल नियमो की पुष्टि के लिए ही है। प्रत्येक व्रत और शील के पांच-पांच अतिचार मध्यमदृष्टि से ही गिनाए गए है, क्योकि संक्षेपदृष्टि से तो कम भी सोचे जा सकते है एवं विस्तारदृष्टि से पांच से अधिक भी हो सकते है ।
चारित्र का अर्थ है रागद्वेष आदि विकारों का अभाव साधकर समभाव का परिशीलन करना । चारित्र के इस मूल स्वरूप को सिद्ध करने के लिए अहिंसा, सत्य आदि जो नियम व्यावहारिक जीवन में उतारे जाते है वे सभी चारित्र
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org