________________
७. १९-३२] व्रत और शील के अतिचार
१८७ कहलाते हैं। व्यावहारिक जीवन देश, काल आदि की परिस्थिति तथा मानवबुद्धि की संस्कारिता के अनुसार बनता है, अतः उक्त परिस्थिति और संस्कारिता के परिवर्तन के साथ ही जीवन-व्यवहार भी बदलता रहता है। यही कारण है कि चारित्र का मूल स्वरूप एक होने पर भी उसके पोषक रूप में स्वीकार किए जानेवाले नियमों की संख्या तथा स्वरूप मे परिवर्तन अनिवार्य है । इसीलिए शास्त्रों में श्रावक के व्रत व नियम भी अनेक प्रकार से विभिन्न रूप मे मिलते हैं
और भविष्य में भी इनमें परिवर्तन होता रहेगा। फिर भी यहाँ ग्रन्थकार ने श्रावक-धर्म के तेरह भेद मानकर प्रत्येक भेद के अतिचारों का कथन किया है। वे क्रमशः इस प्रकार हैं :
अहिंसाव्रत के प्रतिचार-१. बन्ध-किसी भी प्राणी को उसके इष्टस्थान पर जाते हुए रोकना या बाँधना । २. वध-लाठी या चाबुक आदि से प्रहार करना । ३. छविच्छेद-कान, नाक, चमडी आदि अवयवों का भेदन या छेदन करना। ४. अतिभारारोपण-मनुष्य या पशु आदि पर शक्ति से ज्यादा भार लादना। ५. अन्नपाननिरोध-किसी के खाने-पीने मे रुकावट डालना। उत्सर्ग मार्ग यह है कि किसी भी प्रयोजन के बिना व्रतधारी गृहस्थ इन दोषों का कदापि सेवन न करे, परन्तु घर-गृहस्थी का कार्य आ पड़ने पर विशेष प्रयोजन के कारण यदि इनका सेवन करना ही पड़े तब भी कोमलभाव से ही काम लेना चाहिए । १९-२० ।
सत्यवत के प्रतिबार-१. मिथ्योपदेश-सही-गलत समझाकर किसी को विपरीत मार्ग में डालना। २. रहस्याभ्याख्यान-रागवश विनोद के लिए किसी पति-पत्नी को अथवा अन्य स्नेही जनों को एक-दूसरे से अलग कर देना अथवा किसी के सामने दूसरे पर दोषारोपण करना । ३. कूटलेखक्रिया--मोहर, हस्ताक्षर आदि द्वारा झूठो लिखा-पढ़ी करना तथा खोटा सिक्का आदि चलाना । ४. न्यासापहार--कोई धरोहर रखकर भूल जाय तो उसका लाभ उठाकर थोड़ी या पूरी धरोहर दवा जाना। ५. साकारमंत्रभेद--किन्ही की आपसी प्रीति तोडने के विचार से एक-दूसरे की चुगली करना या किसी की गुप्त बात प्रकट कर देना । २१ ।
अस्तेयवत के प्रतिचार-१. स्तेनप्रयोग-किसी को चोरी करने के लिए स्वयं प्रेरित करना या दूसरे के द्वारा प्रेरणा दिलाना अथवा वैसे कार्य मे सहमत होना। २ स्तेन-आहृतादान--प्रेरणा या सम्मति के बिना चोरी करके लाई गई चीज ले लेना। ३. विरुद्धराज्यातिक्रम--वस्तुओं के आयात-निर्यात पर राज्य की ओर से कुछ बन्धन लगे होते हैं अथवा कर आदि की व्यवस्था रहती है, राज्य के इन नियमों का उल्लंघन करना। ४. हीनाधिक मानोन्मान--न्यूनाधिक नाप, बाट
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org