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१८४ तत्त्वार्थसूत्र
[७. १८ सम्भावना है ऐसे अतिचारो का यहाँ पाँच भागों मे वर्णन किया गया है। वे इस प्रकार है:
१. शङ्कातिचार--आर्हत्-प्रवचन की दृष्टि स्वीकार करने के बाद उसमे वर्णित अनेक सूक्ष्म और अतीन्द्रिय पदार्थो ( जो केवल केवलज्ञानगम्य तथा आगमगम्य हों) के विषय मे शङ्का करना कि 'वे ऐसे होंगे या नही ?' संशय और तत्पूर्वक परीक्षा का जैन तत्त्वज्ञान मे पूर्ण स्थान होने पर भी यहाँ शङ्का को अतिचार कहने का अभिप्राय इतना ही है कि तर्कवाद से परे के पदार्थो को तर्कदृष्टि से कसने का प्रयत्ल नही होना चाहिए। क्योकि साधक श्रद्धागम्य प्रदेश को बुद्धिगम्य नही कर सकता, जिससे अन्त में वह बुद्धिगम्य प्रदेश को भी छोड़ देता है । अतः जिससे साधना के विकास में बाधा आती हो वैसी शङ्का अतिचार के रूप मे त्याज्य है।
२. कांक्षातिचार-ऐहिक और पारलौकिक विषयों की अभिलाषा करना। यदि ऐसी कांक्षा होगी तो साधक गुणदोष का विचार किए बिना ही चाहे जब अपना सिद्धान्त छोड़ देगा, इसीलिए उसे अतिचार कहा गया है।
३. विचिकित्सातिचार-जहाँ भी मतभेद या विचारभेद का प्रसंग उपस्थित हो वहाँ अपने-आप कोई निर्णय न करके केवल मतिमन्दता या अस्थिर-बुद्धि के कारण यह सोचना कि 'यह बात भी ठीक है और वह बात भी ठीक हो सकती है। बुद्धि की यह अस्थिरता साधक को किसी एक तत्त्व पर कभी स्थिर नहीं रहने देती, इसीलिए इसे अतिचार कहा गया है।
४-५. मिथ्यादृष्टिप्रशंसा व मिथ्यादृष्टिसंस्तव अतिचार-जिसकी दृष्टि मिथ्या हो उसकी प्रशंसा करना या उससे परिचय करना । भ्रान्तदृष्टि से युक्त व्यक्तियों मे भी कई बार विचार, त्याग आदि गुण मिलते है । गुण और दोष का भेद किए बिना उन गुणों से आकृष्ट होकर वैसे व्यक्ति की प्रशंसा करने अथवा उससे परिचय करने से अविवेकी साधक के सिद्धान्त से स्खलित होने का डर रहता है। इसीलिए अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव को अतिचार माना गया है। मध्यस्थता और विवेकपूर्वक गुण को गुण और दोष को दोष समझनेवाले साधक के लिए भी उक्त प्रकार के प्रशंसा और संस्तव सर्वथा हानिकारक होते है, ऐसी बात नही है।
उक्त पाँचों अतिचार व्रती श्रावक और साधु के लिए समान है, क्योंकि दोनों के लिए सम्यक्त्व साधारण धर्म है । १८ ।
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