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७. १८] सम्यग्दर्शन के अतिचार
१८३ हत्व और वीतरामत्व साधने की भावना में से ही यह व्रत उत्पन्न होता है और इस भावना की सिद्धि के प्रयत्न के कारण ही यह व्रत पूर्ण बनता है । इसलिए यह हिंसा नही है, अपितु शुभध्यान अथवा शुद्धध्यान की कोटि का होने से इसको त्यागधर्म में स्थान प्राप्त है।
प्रश्न-जनेतर पन्थों में प्राणनाश करने की और धर्म मानने की कमलपूजा, भैरवजप, जलसमाधि आदि अनेक प्रथाएँ प्रचलित थी एवं है; उनमे और सलेखना में क्या अन्तर है ?
उतर-प्राणनाश की स्थूल दृष्टि से भले ही ये समान दिखाई दें, किन्तु भेद तो उनमें निहित भावना मे ही होता है । कमलपूजा आदि के पीछे कोई भौतिक आशम या दूसरा प्रलोभन न हो और केवल भक्ति का आवेश या अर्पण की वृत्ति हो, ऐसी स्थिति मे तथा आवेश या प्रलोभन से रहित संलेखना की स्थिति में अगर कोई अन्तर कहा जा सकता है तो वह भिन्न-भिन्न तत्त्वज्ञान पर अवलम्बित भिन्न-भिन्न उपासनाओं में निहित भावनाओं का ही है। जैन-उपासना का ध्येय उसके तत्त्वज्ञान के अनुसार परार्पण या परप्रसन्नता नहीं है, अपितु यात्मशोधन मात्र है। पुराने समय से चली आई धर्म्य प्राणनाश की विविध प्रथावों का उसी ध्येय की दृष्टि से संशोधित रूप जो कि जैन संप्रदाय मे प्रचलित है, संसलावत है। इसीलिए संलेखनावत का विधान विशिष्ट संयोगों में किया गया है।
जब जीवन का अन्त निश्चित रूप से समीप दिखाई दे, धर्म एवं आवश्यक कर्तव्यों का नाश हो रहा हो तथा किसी तरह का दुर्ध्यान न हो उसी स्थिति में यह व्रत विधेय माना गया है। १५-१७ ।
सम्यग्दर्शन के अतिचार शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः
सम्यग्दृष्देरतिचाराः। १८ । शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा तथा अन्यदृष्टिसंस्तव ये पाँच सम्यग्दर्शन के अतिचार हैं।
ऐसे स्खलन अतिचार कहलाते है जिनसे कोई भी स्वीकार किया हुआ गुण मलिन हो जाता है और धीरे-धीरे ह्रास होते-होते नष्ट हो जाता है ।
सम्यक्त्व हो चारित्रधर्म का मूल आधार है। उसकी शुद्धि पर ही चारित्रशुद्धि अवलम्बित है। इसलिए जिनसे सम्यक्त्व की शुद्धि में विघ्न पहुँचने की
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