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७. १५-१७ ]
अगारी व्रती
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जो अहिंसा आदि व्रतों को सम्पूर्ण रूप से स्वीकार करने में समर्थ नही है, फिर भी त्यागवृत्तियुक्त है, वह गार्हस्थिक मर्यादा मे रहकर अपनी त्यागवृत्ति के अनुसार इन व्रतों को अल्पाश मे स्वीकार करता है । ऐसा गृहस्थ 'अणुव्रतधारी श्रावक' कहा जाता है ।
सम्पूर्णरूप से स्वीकार किये जानेवाले व्रत महाव्रत कहलाते है । उनके स्वीकरण की प्रतिज्ञा मे सम्पूर्णता के कारण तारतम्य नहीं रखा जाता । जब व्रतों को अल्पाश में स्वीकार किया जाता है, तब अल्पता की विविधता के कारण प्रतिज्ञा भी अनेक प्रकार से अलग-अलग ली जाती है । फिर भी एक-एक अणुव्रत की विविधता में न जाकर सूत्रकार ने सामान्यतः गृहस्थ के अहिंसा आदि व्रतों का एक-एक अणुव्रत के रूप मे वर्णन किया है । ये अणुव्रत पाँच है, जो भूलभूत है अर्थात् त्याग के प्रथम स्तम्भ होने से मूलगुण या मूलव्रत कहलाते है । इनकी रक्षा, पुष्टि अथवा शुद्धि के निमित्त गृहस्थ अन्य भी अनेक व्रत स्वीकार करता है, जो उत्तरगुण' या उत्तरव्रत के नाम से प्रसिद्ध है । ऐसे उत्तरव्रत संक्षेप में सात है तथा गृहस्थ व्रती जीवन के अन्तिम समय में जिस एक व्रत को लेने के लिए प्रेरित होता है, उसे संलेखना कहा जाता है । यहाँ उसका भी निर्देश है । इन सभी व्रतों का स्वरूप यहाँ संक्षेप मे बतलाया जा रहा है ।
पाँच प्ररण, व्रत-२. छोटे-बड़े प्रत्येक जीव की मानसिक, वाचिक, कायिक हिंसा का पूर्णतया त्याग सम्भव न होने के कारण अपनी निश्चित की हुई गृहस्थमर्यादा. जितनी अल्प- हिसा से निभ सके उससे अधिक हिंसा का त्याग करना
१. सामान्यतः भ० महावीर की समग्र परम्परा मे अणव्रतों की पॉच संख्या, उनके नाम तथा क्रम मे कोई अन्तर नही है। हॉ, दिगम्बर परम्परा में कुछ आचार्यों ने रात्रिभोजन के त्याग को छठे अणुव्रत के रूप में गिना है । परन्तु उत्तरगुण के रूप में माने हुए श्रावक के व्रतों के विषय में प्राचीन व नवीन अनेक परम्पराएँ हैं । तत्त्वार्थसूत्र में दिग्विरमण के बाद उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत के स्थान पर देशविरमणव्रत को रखा गया है, जब कि आगमों में दिग्विरमण के बाद उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत है तथा देशविरमणव्रत को सामायिकव्रत के बाद गिना है । ऐसे क्रम-भेद के बावजूद जो तीन व्रत गुणव्रत के रूप में और चार व्रत शिक्षाव्रत के रूप मे माने जाते हैं उनमे कोई अन्तर नहीं है । उत्तरगुणों के विषय मे दिगम्बर सम्प्रदाय मे छः विभिन्न परम्पराएँ देखने मे आती है I कुन्दकुन्द, उमास्वाति, समन्तभद्र, स्वामी कार्तिकेय, जिनसेन और वसुनन्दी इन आचार्यों की भिन्न-भिन्न मान्यताएँ है । इस मतभेद में कहीं नाम का, कहीं क्रम का, कही संख्या का और कही अर्थविकास का अन्तर है । यह सब स्पष्टरूप से जानने के लिए देखें-पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार को जैनाचार्यों का शासन-भेद नामक पुस्तक, पृ० २१ से आगे ।
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