Book Title: Tattvarthasutra Hindi
Author(s): Umaswati, Umaswami, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 348
________________ ९८२ तत्त्वार्धसूत्र [७. १५-१७ अहिंसाणुव्रत है। इसी प्रकार असत्य, चोरी, कामाचार और परिग्रह का अपनी परिस्थिति के अनुसार मर्यादित रुप में त्याग करना-२. सत्य, ३. अस्तेय, ४. ब्रह्मचर्य और ५. अपरिग्रह अणुव्रत है। तीन गुणवत-६. अपनी त्यागवृत्ति के अनुसार पूर्व व पश्चिम आदि सभी दिशाओं का परिमाण निश्चित करके उस सीमा के बाहर सब प्रकार के अधर्म-कार्यो से निवृत्त होना दिग्विरतिव्रत है । ७. सर्वदा के लिए दिशा का परिमाण निश्चित कर लेने के बाद भी उसमें से प्रयोजन के अनुसार समय-समय पर क्षेत्र का परिमाण निश्चित करके उसके बाहर अधर्म-कार्य से सर्वथा निवृत्त होना देशविरतिव्रत है । ८. अपने भोगरूप प्रयोजन के लिए होनेवाले अधर्म-व्यापार के अतिरिक्त शेष सम्पूर्ण अधर्म-व्यापार से निवृत्त होना अर्थात् कोई निरर्थक प्रवृत्ति न करना अनर्थदण्डविरतिव्रत है। चार शिक्षाप्रत–९. काल का अभिग्रह लेकर अर्थात् अमुक समय तक अधर्मप्रवृत्ति का त्याग करके धर्मप्रवृत्ति में स्थिर होने का अभ्यास करना सामायिक व्रत है । १०. अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा या किसी दूसरी तिथि मे उपवास करके और सब प्रकार की शरीर-विभूषा का त्याग करके धर्म-जागरण में तत्पर रहना पौषधोपवासव्रत है । ११. अधिक अधर्म की संभावनावाले खान-पान, आभूषण, वस्त्र, बर्तन आदि का त्याग करके अल्प अधर्मवाली वस्तुओ की भी भोग के लिए मर्यादा बाँधमा उपभोगपरिभोगपरिमाणवत है। १२. न्याय से उपार्जित और खपनेवाली खान-पान आदि के योग्य वस्तुओं का शुद्ध भक्तिभावपूर्वक सुपात्र को इस प्रकार दान देना कि उससे उभय पक्ष का हित हो–अतिथिसंविभागवत है । संलेखना-कषायों को नष्ट करने के लिए उनके निर्वाहक और पोषक कारणों को कम करते हुए कषायों को मन्द करना संलेखनावत है। यह व्रत वर्तमान शरीर का अन्त होने तक के लिए लिया जाता है । इसको मारणान्तिक संलेखना कहते है। गृहस्थ भी श्रद्धापूर्वक सलेखनाव्रत स्वीकार करके उसका सम्पूर्णतया पालन करते है, इसीलिए उन्हे इस व्रत का आराधक कहा गया है। प्रश्न--संलेखनावत धारण करनेवाला मनुष्य अनशन आदि द्वारा शरीर का अन्त करता है। यह तो आत्महत्या है और यह स्वहिंसा ही है। फिर इसको व्रत मानकर त्यागधर्म मे स्थान देना कहाँ तक उचित है ? उत्तर-यह भले ही दुःख या प्राणनाश दिखाई दे, पर इतने मात्र से यह व्रत हिंसा की कोटि में नहीं आता। वास्तविक हिसा का स्वरूप तो राग, द्वेष एवं मोह की वृत्ति से ही बनता है। संलेखनावत मे प्राणनाश है, पर वह राग, द्वेष एवं मोह के न होने से हिंसा की कोटि मे नही आता, अपितु निर्मो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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