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तत्त्वार्थसूत्र
[७.१४-१७ व्रती के भेद
अगार्यनगारश्च । १४ । व्रती के अगारी ( गृहस्थ ) और अनगार ( त्यागी ) ये दो भेद हैं।
प्रत्येक व्रतधारी की योग्यता समान नहीं होती। इसीलिए यहाँ योग्यता के तारतम्य के अनुसार संक्षेप में व्रती के दो भेद किए गए है-१. अगारी और २. अनगार । अगार अर्थात् घर । जिसका घर के साथ सम्बन्ध हो वह अगारी सर्थात् गृहस्थ । जिसका घर के साथ सम्बन्ध न हो वह अनगार अर्थात् त्यागी, मुनि ।
अगारी और अनगार इन दोनों शब्दों का सरल अर्थ घर मे रहना या न रहना ही है । लेकिन यहाँ इनका यह तात्पर्य अपेक्षित है कि विषयतृष्णा से युक्त अगारी है तथा विषयतृष्णा से मुक्त अनगार । इसका फलितार्थ यह है कि कोई घर में रहता हुआ भी विषयतृष्णा से मुक्त हो तो अनगार ही है तथा कोई घर छोड़कर जंगल मे जा बसे लेकिन विषयतृष्णा से मुक्त नही है तो वह अगारी ही है । अगारीपन और अनगारपन की एक यही सच्ची एवं प्रमुख कसौटी है तथा उसके आधार पर ही यहाँ व्रती के दो भेद वर्णित है।
प्रश्न-यदि कोई विषयतृष्णा होने के कारण अगारी है तो फिर उसे व्रती कैसे कहा जा सकता है ?
उत्तर--स्थूल दृष्टि से कहा जा सकता है । जैसे कोई व्यक्ति अपने घर आदि किसी नियत स्थान में ही रहता है और फिर भी अमुक शहर मे रहता हैऐसा व्यवहार अपेक्षाविशेष से करते है, वैसे ही विषयतृष्णा के रहने पर भी अल्पांश मे व्रत का सम्बन्ध होने से उसे व्रती कहा जा सकता है । १४ ।
अगारी व्रती अणुव्रतोऽगारी। १५ । दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकपौषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणाऽतिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च।१६।
मारणान्तिकों संलेखनां जोषिता । १७ । अणुव्रतधारी अगारी व्रती कहलाता है ।
वह व्रती दिग्विरति, देशविरति अनर्थदण्डविरति, सामायिक, पौषधोपवास, उपभोगपरिभोगपरिमाण और अतिथिसंविभाग-इन व्रतों से भी सम्पन्न होता है।
वह मारणान्तिक संलेखना का भी आराधक होता है ।
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