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तत्त्वार्थ सूत्र
[ ७. १२
प्रश्न - जहाँ जोड़ा न हो किन्तु स्त्री या पुरुष मे से कोई एक ही व्यक्ति
कामराग के आवेश में जड़ वस्तु के आलम्बन से अथवा द्वारा मिथ्या आचार का सेवन करे तो ऐसी चेष्टा को क्या मैथुन कह सकते है ?
अपने हस्त आदि अवयवों उपर्युक्त व्याख्या के अनुसार
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उत्तर——हीं, अवश्य कह सकते है । क्योंकि मैथुन का मूल भावार्थ तो कामरागजनित चेष्टा ही हैं । यह अर्थ तो किसी एक व्यक्ति की वैसी दुश्चेष्टाओं पर भी लागू हो सकता है, अतः उसमे भी मैथुन का दोष है ही ।
प्रश्न - मैथुन को अब्रह्म कहने का क्या कारण है ?
उत्तर—जो ब्रह्म न हो वह अब्रह्म है । ब्रह्म का अर्थ है —— जिसके पालन और अनुसरण से सद्गुणो की वृद्धि हो । जिस ओर जाने से सद्गुणों की वृद्धि न हो, बल्कि दोषों का ही पोषण हो वह अब्रह्म है । मैथुन प्रवृत्ति ऐसी है कि उसमे पड़ते ही सारे दोषों का पोषण और सद्गुणों का ह्रास प्रारम्भ हो जाता है । इसीलिए मैथुन को अब्रह्म कहा गया है । ११ ।
परिग्रह का स्वरूप
मूर्च्छा परिग्रहः । १२ ॥
मूर्च्छा ही परिग्रह है ।
मूर्च्छा अर्थात् आसक्ति । वस्तु छोटी-बड़ी, जड़-चेतन, बाह्य या आन्तरिक चाहे जो हो या न भी हो तो भी उसमे बँध जाना अर्थात् उसकी लगन में विवेकशून्य हो जाना परिग्रह है ।
प्रश्न- - हिंसा से परिग्रह तक के पाँच दोषों का स्वरूप ऊपर-ऊपर से भिन्न प्रतीत होता है, पर सूक्ष्मतापूर्वक विचार करने पर उसमें कोई विशेष भेद नहीं 1 वस्तुतः इन पांचों दोषों की सदोषता का आधार राग, द्वेष और मोह ही है और यही हिसा आदि वृत्तियों का जहर है । इसी से वे वृत्तियाँ दोषरूप है । यदि यह बात सत्य है तब 'राग-द्वेष आदि ही दोष है' इतना कहना ही काफी होगा । फिर दोष के हिंसा आदि पाँच या न्यूनाधिक भेदों का वर्णन क्यों किया जाता है ?
उत्तर -- निःसन्देह कोई भी प्रवृत्ति राग-द्वेष आदि के कारण ही होती है । अतः मुख्य रूप से राग-द्वेष आदि ही दोष है और इन दोषों से विरत होना ही मुख्य व्रत है । फिर भी राग-द्वेषादि तथा ऐसी प्रवृत्तियों के त्याग का उपदेश तभी किया जा सकता है जब कि तज्जन्य प्रवृत्तियों के विषय में समझा दिया गया हो । स्थूल दृष्टिवाले लोगों के लिए दूसरा क्रम अर्थात् सीधे राग-द्वेषादि के त्याग का उपदेश सम्भव नही है । रागद्वेषजन्य असंख्य प्रवृत्तियों में से हिंसा, असत्य आदि
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