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तत्त्वार्थसूत्र भी चित्त के मूल दोष, जैसे स्थूल जोवन की तृष्णा और उसके कारण पैदा होनेवाले दूसरे रागद्वेषादि दोषों को कम करने का सतत प्रयत्न करना ।
प्रश्न-ऊपर हिमा की जो दोषरूपता बतलाई गई है उसका क्या अर्थ है ?
उत्तर-जिममे चित्त की कोमलता कम हो और कठोरता बढे तथा स्थूल जीवन की तृष्णा बड़े वही हिमा की सदोषता है। जिससे कठोरता न बढे एव सहज प्रेममय वृत्ति व अतर्मुख जीवन मे तनिक भी बाधा न पहुँचे, तब भले ही देखने मे हिसा हो, लेकिन वही हिसा की अदोषता है ।
असत्य का स्वरूप
असदभिधानमनृतम् ।९।। असत् बोलना अनृत ( असत्य ) है ।
सूत्र मे असत्-कथन को असत्य कहा गया है, फिर भी उसका भाव व्यापक होने से उसमे असत्-चिन्तन, असत्-भाषण और असत्-आचरण इन सबका समावेश है। ये सभी असत्य है। जैसे अहिसा की व्याख्या मे 'प्रमत्तयोग' विशेषण लगा है वैसे ही अमत्य तथा अदत्तादानादि दोषों की व्याख्या में भी यह विशेषण जोड लेना चाहिए। इसलिए प्रमत्तयोगपूर्वक जो असत्-कथन है वह असत्य है, यह असत्य-दोष का फलित अर्थ है ।।
'असत्' शब्द के मुख्यतः दो अर्थ यहाँ अभिप्रेत है :
१. जो वस्तु अस्तित्व मे हो उसका सर्वथा निषेध करना अथवा निषेध न करने पर भी जिस रूप में वस्तु हो उसको उस रूप मे न कहकर उसका अन्यथा कथन करना अरत् है ।
२ गहित असत् अर्थात् जो सत्य होने पर भी दूसरे को पीडा पहुंचाता हो ऐसा दुर्भावयुक्त कथन अमत् है ।
पहले अर्थ के अनुसार पाम मे पूँजी होने पर भी जब लेनदार ( साहूकार ) माँग करे तब कह देना कि कुछ भी नहीं है, यह असत्य है। इसी प्रकार पास में पूजी है, यह स्वीकार कर लेने पर भी लेनदार सफल न हो सके इस प्रकार का वक्तव्य देना भी असत्य है ।
१. अब्रह्म में 'प्रमत्तयोग' विशेषण नही लगता, क्योकि यह दोष अप्रमत्त दशा मे सम्भव ही नहीं है। इसीलिए तो ब्रह्मचर्य को निरपवाद कहा गया है। विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखे-'जैन दृष्ठिए ब्रह्मचर्य' नामक गुजराती निबन्ध ।
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