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१७४ तत्त्वार्थसूत्र
[७.८ निर्णय किया जा सकता है । वह भावना अर्थात् राग-द्वेष की विविध मियाँ तथा असावधानता, जिसको शास्त्रीय परिभाषा मे प्रमाद कहते है, ऐसी अशुभ अथवा क्षुद्र भावना से हो यदि प्राणनाश हुआ हो या दु.ख दिया गया हो तो वह हिंसा है और वही दोप-रूप भी है। ऐसी भावना के बिना यदि प्राणनाश हुआ हो या दुःख दिया गया हो तो वह देखने मे भले हो हिसा हो लेकिन दोषकोटि में नही आती। इस प्रकार हिसक समाज मे अहिसा के सस्कारों के फैलने और उनके कारण विचार का विकास होने से दोषरूप हिसा की व्याख्या के लिए केवल 'प्राणनाश' अर्थ ही पर्याप्त नहो हुआ, इसीलिए उसमे 'प्रमत्तयोग' जैसा महत्त्व पूर्ण अंश बढाया गया ।
प्रश्न -- हिंसा की इस व्याख्या से यह प्रश्न उठता है कि प्रमत्तयोग के बिना ही यदि प्राणवध हो जाय तो उसे हिंसा कहेगे या नही ? इसी प्रकार प्राण वध तो न हुआ हो लेकिन प्रमत्तयोग हो तब भी उसे हिसा मानेंगे या नहीं ? यदि इन दोनों स्थलों में हिंसा मानी जाय तो वह हिंसा प्रमत्तयोगजनित प्राणवधरूप हिसा-कोटि की ही होगी या उससे भिन्न प्रकार की ?
उत्तर-केवल प्राण वध स्थूल होने से दृश्य-हिसा तो है ही, जब कि प्रमत्तयोग सूक्ष्म होने से अदृश्य है। इन दोनों मे दृश्यत्व-अदृश्यत्व के अन्तर के अतिरिक्त ध्यान देने योग्य एक महत्त्वपूर्ण अन्तर दूसरा भी है और उसी पर हिसा की सदोषता या निर्दोषता निर्भर करती है। प्राणनाश देखने में भले ही हिंसा हो फिर भी वह सर्वथा दोषरूप नहीं है, क्योंकि यह दोषरूपता स्वाधीन नही है । हिसा की सदोषता हिसक की भावना पर अवलम्बित होती है, अतः वह पराधीन है । भावना स्वयं बुरी हो तभी प्राणवध दोषरूप होगा, भावना बुरी न हो तो वह प्राणवध भी दोषरूप नहीं होगा। इसीलिए शास्त्रीय परिभाषा मे ऐसी हिसा को द्रव्य-हिसा अथवा व्यावहारिक हिंसा कहा गया है । द्रयहिंसा अथवा व्यावहारिक हिसा का अर्थ यही है कि उसकी दोषरूपता अबाधित नहीं है । इसके विपरीत प्रमत्तयोगरूप जो सूक्ष्म भावना है वह स्वयं ही सदोष है, जिससे उसकी सदोषता स्वाधीन है अर्थात् वह स्थूल प्राणनाश या किसी अन्य बाह्य वस्तु पर अवलम्बित नही है । स्थूल प्राणनाश करने या दुःख देने का प्रयत्न होने पर उलटा दूसरे का जीवन बढ गया हो या उसको सुख ही पहुंच गया हो, फिर भी यदि उसके पीछे भावना अशुभ रही हो तो वह सब एकान्त दोष-रूप ही समझा जायगा। यही कारण है कि ऐसी अशुभ भावना को शास्त्रीय परिभाषा में भावहिंसा अथवा निश्चय-हिंसा कहा गया है । इसका अर्थ यही है कि उसकी दोषरूपता स्वाधीन होने से तीनों कालों में अबाधित रहती है। केवल प्रमत्तयोग या केवल प्रामात्र
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