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तत्त्वार्थसूत्र
[७. ८
उपयोगी होता है । इसी कारण यहाँ माध्यस्थ्य-भावना का उपदेश किया गया है । माध्यस्थ्य का अर्थ है उपेक्षा या तटस्थता। जब नितात संस्कारहीन अथवा किसी तरह की भी सद्वस्तु ग्रहण करने के अयोग्य पात्र मिल जाय और यदि उसे सुधारने के सभी प्रयत्नों का परिणाम अन्तत शून्य ही दिखाई दे तो ऐसे व्यक्ति के प्रति तटस्थ भाव रखना ही उचित है । अत. माध्यस्थ्यभावना का विषय अविनेय या अयोग्य पात्र ही है। ___ संवेग तथा वैराग्य न हों तो अहिसा आदि व्रतो का पालन सम्भव ही नही है। अतः इस व्रत के अभ्यासी में संवेग और वैराग्य का होना पहले आवश्यक है। सवेग अथवा वैराग्य का बीजवपन जगत्स्वभाव एव शरीरस्वभाव के चिन्तन से होता है, इसीलिए इन दोनो के स्वभाव के चिन्तन का भावनारूप मे यहाँ उपदेश किया गया है।
प्राणिमात्र को थोडे-बहुत दु.ख का अनुभव तो निरन्तर होता ही रहता है। जीवन सर्वथा विनश्वर है, अन्य वस्तुएँ भी टिकती नही । इस जगत्स्वभाव के चिन्तन से ही संसार का मोह दूर होता है और उससे भय या सवेग उत्पन्न होता है। इसी प्रकार शरीर के अस्थिर, अशुचि और असारता के स्वभावचिन्तन से बाह्याभ्यन्तर विषयो के प्रति अनासक्ति या वैराग्य उत्पन्न होता है । ४-७ ।
हिसा का स्वरूप प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा। ८। प्रमत्तयोग से होनेवाला प्राणवध हिंसा है।
अहिसा आदि जिन पाँच व्रतों का निरूपण पहले किया गया है उनको भली-भांति समझने और जीवन में उतारने के लिए विरोधी दोषों का यथार्थ स्वरूप जानना आवश्यक है । अतः यहाँ इन पाँच दोषो के निरूपण का प्रकरण प्रारम्भ होता है । इस सूत्र मे प्रथम दोष हिसा की व्याख्या की गई है।
हिसा की व्याख्या दो अशों द्वारा पूरी की गई है। पहला अश है प्रमत्तयोग अर्थात् रागद्वेषयुक्त अथवा असावधान प्रवृति और दूसरा है प्राणवध । पहला अश कारण-रूप है और दूसरा कार्य-रूप । इसका फलितार्थ यह है कि जो प्राणवध प्रमत्तयोग से हो वह हिसा है ।
प्रश्न-किसी के प्राण लेना या किसी को दुःख देना हिंसा है। हिसा का यह अर्थ सबके जानने योग्य है और बहुत प्रसिद्ध भी है। फिर भी इस अर्थ में 'प्रमत्तयोग' अंश जोड़ने का कारण क्या है ?
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