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७. १०-११] चोरी व अब्रह्म का स्वरूप
१७७ दूसरे अर्थ के अनुसार किसी भी अनपढ या मूढ को नीचा दिखाने के लिए अथवा ऐसे ढंग से कि उसे दुख पहुँचे, सत्य होने पर भी 'अनपढ' या 'मूढ़' कहना असत्य है।
असत्य के उक्त अर्थ से सत्यव्रतधारी के लिए निम्न अर्थ फलित होते है : १. प्रमत्तयोग का त्याग करना । २. मन, वचन और काय की प्रवृत्ति में एकरूपता रखना ।
३. सत्य होने पर भी दुर्भाव से न तो अप्रिय मोचना, न बोलना और न करना।९।
चोरी का स्वरूप
अदत्तादानं स्तेयम् । १० । बिना दिये लेना स्तेय ( चोरी ) है।
जिस वस्तु पर किसी दूसरे का स्वामित्व हो, भले ही वह वस्तु तृणवत् या मूल्यरहित हो, उसके स्वामी की आज्ञा के बिना चौर्य-बुद्धि से ग्रहण करना स्तेय है।
इस व्याख्या से अचौर्यव्रतधारी के लिए निम्न अर्थ फलित होते है : १. किसी भी वस्तु के प्रति लालची वृत्ति दूर करना।
२. जब तक ललचाने की आदत न छूटे तब तक लालच की वस्तु न्यायपूर्वक अपने आप ही प्राप्त करना और दूसरे की ऐसी वस्तु आज्ञा के बिना लेने का विचार तक न करना । १० ।
अब्रह्म का स्वरूप
मैथुनमब्रह्म।११। मैथुन-प्रवृत्ति अब्रह्म है।
मैथुन अर्थात् मिथुन की प्रवृत्ति । 'मिथुन' शब्द सामान्य रूप से स्त्री और पुरुष के 'जोडे' के अर्थ मे प्रसिद्ध है। फिर भी इसके अर्थ को कुछ विस्तृत करना आवश्यक है । जोडा स्त्री-पुरुष का, पुरुष-पुरुष का या स्त्री-स्त्री का भी हो सकता है। वह सजातीय--मनुष्य आदि एक जाति का अथवा विजातीय-मनुष्य, पशु आदि भिन्न-भिन्न जातियों का भी हो सकता है। ऐसे जोडे की काम-राग के आवेश से उत्पन्न मानसिक, वाचिक अथवा कायिक कोई भी प्रवृत्ति मैथुन अर्थात अब्रह्म है।
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