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तत्त्वार्थसूत्र
[७. ४-७ ५. राग उत्पन्न करनेवाले स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द पर न ललचाना और द्वेषोत्पादक हो तो रुष्ट न होना ये क्रमशः मनोज्ञामनोज्ञस्पर्शसमभाव एवं मनोज्ञामनोज्ञरससमभाव आदि पांच भावनाएँ है।
जैनधर्म त्यागलक्षी है, अत. जैन-संघ में महाव्रतधारी साधु का स्थान ही प्रथम है । यही कारण है कि यहाँ महाव्रत को लक्ष्य मे रखकर साधुधर्म के अनुसार ही भावनाओ का वर्णन किया गया है । फिर भी इतना तो है ही कि कोई भी व्रतधारी अपनी भूमिका के अनुसार इनमे सकोचविस्तार कर सके इसलिए देश-काल की परिस्थिति और आन्तरिक योग्यता को ध्यान में रखकर व्रत की स्थिरता के शुद्ध उद्देश्य से ये भावनाएँ संख्या तथा अर्थ मे घटाई-बढ़ाई तथा पल्लवित की जा सकती है।
कई अन्य भावनाएँ हिंसादिष्विहामुत्र चापायावद्यदर्शनम् । ४ । दुःखमेव वा ।५। मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु ।। जगत्कायस्वभावौ च संवेगवैराग्यार्थम् । ७।।
हिंसा आदि पाँच दोषो में ऐहिक आपत्ति और पारलौकिक अनिष्ट का दर्शन करना।
अथवा हिंसा आदि दोषों मे दुःख ही है, ऐसी भावना करना।
प्राणिमात्र के प्रति मैत्री-वृत्ति, गुणिजनों के प्रति प्रमोद-वृत्ति, दुःखी जनों के प्रति करुणा-वृत्ति और अयोग्य पात्रों के प्रति माध्यस्थ्यवृत्ति रखना।
सवेग तथा वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वरूप का चिन्तन करना।
जिसका त्याग किया जाता है उसके दोषो का यथार्थ दर्शन होने से ही त्याग टिकता है। यही कारण है कि अहिसा आदि व्रतो की स्थिरता के लिए हिंसा आदि मे उनके दोषो का दर्शन करना आवश्यक माना गया है। यह दोषदर्शन यहाँ दो प्रकार से बताया गया है। हिंसा, असत्य आदि के सेवन से जो ऐहिक आपत्तियाँ स्वयं को अथवा दूसरों को अनुभव करनी पडती है उनका भान सदा ताजा रखना ही ऐहिक दोषदर्शन है । इन्हीं हिंसा आदि दोषों से'
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