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व्रतों की भावनाएँ
१६९ रतिविलास के स्मरण का वर्जन और प्रणीतरस-भोजन का वर्जन-ये ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाएँ है ।
५. मनोज्ञ या अमनोज्ञ स्पर्श, रस, गन्ध, रूप तथा शब्द पर समभाव रखना-ये अपरिग्रह व्रत की पाँच भावनाएं हैं।
__ भावनाओं का स्पष्टीकरण---१ स्व-पर को क्लेग न हो, इस प्रकार यत्नपूर्वक गमन करना ईर्यासमिति है । मन को अशुभ ध्यान मे बचाकर शुभ ध्यान मे लगाना मनोगुप्ति है । वस्तु का गवेषण, उसका ग्रहण या उपय ग इन तीन एषणाओं मे दोष न लगने देने का ध्यान रखना एषणासमिति है। वस्तु को लेतेछोडते समय अवलोकन व प्रमार्जन आदि द्वारा उठाना रखना आदान-निक्षेपणसमिति है । खाने-पीने की वस्तु को भलीभाँति देख-भालकर लेना और बाद मे भी देख-भालकर खाना-पीना आलोकितपानभोजन है।
२ विचारपूर्वक बोलना अनुवीचिभाषण है । क्रोध, लोभ, भय तथा हास्य का त्याग करना ये चार भावनाएँ और है ।
३ सम्यक विचार करके ही उपयोग के लिए आवश्यक अवग्रह-स्थान की याचना करना अनुवीचिअवग्रहयाचन है । राजा, कुटुम्बपति, शय्यातर--जिसकी भी जगह माँगकर ली गई हो, ऐसे साधर्मिक आदि अनेक प्रकार के स्वामी हो सकते है । उनमे से जिस-जिस स्वामी से जो-जो स्थान माँगने मे विशेष औचित्य प्रतीत हो उनसे वही स्थान मांगना तथा एक बार देने के बाद मालिक ने वापिस ले लिया हो, फिर भी रोग आदि के कारण विशेष आवश्यक होने पर उसके स्वामी से इस प्रकार बार-बार लेना कि उसको क्लेश न होने पावे--यह अभीक्ष्णअवग्रहयाचन है । मालिक से मॉगते समय ही अवग्रह का परिमाण निश्चित कर लेना अवग्रहावधारण है । अपने से पहले दूसरे किसी समानधर्मी ने कोई स्थान ले लिया हो और उसी स्थान को उपयोग मे लाने का प्रसंग आ जाय तो उस सार्मिक से ही स्थान माँ..ना सार्मिकअवग्रहयाचन है। विधिपूर्वक अन्नपानादि लाने के बाद गुरु को दिखाकर उनकी अनुज्ञापूर्वक ही उपयोग करना अनुज्ञापितपानभोजन है ।
४. ब्रह्मचारी पुरुष या स्त्री का अपने से विजातीय व्यक्ति द्वारा सेवित शयन व आसन का त्याग करना स्त्रीप-नुषण्डकसेवितशयनासन-वर्जन है । ब्रह्मचारी का कामवर्धक बाते न करना रागसयुक्त स्त्रीकथा-वर्जन है । ब्रह्मचारी का अपने विजातीय व्यक्ति के कामोद्दीपक अंगों को न देखना मनोहरेन्द्रियावलोकन-वर्जन है । ब्रह्मचर्य स्वीकार करने से पहले के भोगो का स्मरण न करना पूर्वरतिविलासस्मरण-वर्जन है। कामोद्दीपक रसयुक्त खानपान का त्याग करना प्रणीतरसभोजन-वर्जन है।
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