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तत्त्वार्थसूत्र
[ ७. २-३ व्रत के भेद
देशसर्वतोऽणुमहती।२। अल्प अंश में विरति अणुव्रत और सर्वाश में विरति महावत है।
प्रत्येक त्यागाभिलापी व्यक्ति दोषो से निवृत्त होता है। किन्तु सबका त्याग समान नहीं होता और यह विकास-क्रम की दृष्टि से स्वाभाविक भो है । इसलिए यहाँ हिमा आदि दोषों की थोडी या बहुत सभी निवृत्तियो को ब्रत मानकर उनके संक्षेप मे दो भेद किए गए है—महाब्रत और अणुव्रत ।
१. हिसा आदि दोषो से मन, वचन, काय द्वारा सब प्रकार से छूट जाना, यह हिसाविरमण ही महावत है ।
२. चाहे जितना हो, लेकिन किसी भी अंश मे कम छूटना -ऐसा हिसाविरमण अणुव्रत है।
_ व्रतो की भावनाएँ
तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च । ३ । उन ( व्रतों ) को स्थिर करने के लिए प्रत्येक व्रत की पाँच-पांच भावनाएं हैं।
अत्यन्त सावधानीपूर्वक विशेष-विशेष प्रकार की अनुकूल प्रवृत्तियों का सेवन न किया जाय तो स्वीकार करने मात्र से ही व्रत आत्मा मे नही उतर जाते। ग्रहण किए हुए व्रत जीवन मे गहरे उतरे, इसीलिए प्रत्येक व्रत के अनुकूल थोडी-बहुत प्रवृत्तियाँ स्थूल दृष्टि से विशेष रूप मे गिनाई गई है, जो भावना के नाम से प्रसिद्ध है । यदि इन भावनाओं के अनुसार ठीक-ठीक बर्ताव किया जाय तो अंगीकृत व्रत प्रयत्नशील के लिए उत्तम औषधि के समान सुन्दर परिणामकारक सिद्ध होते है । वे भावनाएँ क्रमशः इस प्रकार है :
१. ईर्यासमिति, मनोगुप्ति, एषणासमिति, आदाननिक्षेपणसमिति और आलोकितपानभोजन-ये अहिसाव्रत की पाँच भावनाएँ है ।
२ अनुवीचिभाषण, क्रोधप्रत्याख्यान, लोभप्रत्याख्यान, निर्भयता और हास्यप्रत्याख्यान--ये सत्यव्रत की पाँच भावनाएं हैं।
३. अनुवीचिअवग्रहयाचन, अभीक्ष्णअवग्रहयाचन, अवग्रहावधारण, सार्मिक से अवग्रहयाचन और अनुज्ञापितपानभोजन-ये अचौर्यव्रत की पाँच भावनाएँ है ।
४. स्त्री, पशु अथवा नपुसक द्वारा सेवित शयन आदि का वर्जन, रागपूर्वक स्त्रीकथा का वर्जन, स्त्रियों के मनोहर अंगों के अवलोकन का वर्जन, पहले के
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