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वत का स्वरूप
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उत्तर - दीर्घकाल से रात्रिभोजनविरमण नामक व्रत प्रसिद्ध है, पर वास्तव मे वह मूल व्रत नहीं हैं, अपितु मूल व्रत से निष्पन्न एक प्रकार का आवश्यक व्रत है । ऐसे अवांतर व्रत कई है और उनको कल्पना भी कर सकते है । किन्तु यहाँ तो मूल व्रत का निरूपण इष्ट है । मूल व्रत से निष्पन्न होनेवाले अवान्तर व्रत तो उसके व्यापक निरूपण में आ ही जाते है । रात्रिभोजनविरमणव्रत अहिंसाव्रत मे से निष्पन्न होनेवाले अनेक व्रतों में से एक है ।
प्रश्न - अन्धेरे मे दिखाई न देनेवाले जन्तु नाश के कारण और दीपक जलाने से होनेवाले अनेक प्रकार के आरम्भ को दृष्टि में रखकर ही रात्रिभोजनविरमण को अहिंसाव्रत का अंग माना जाता है, पर जहाँ अन्धेरा भी न हो और दीपक से होनेवाले आरम्भ का प्रसंग भी नही आता वैसे शीतप्रधान देश में तथा जहाँ बिजली का प्रकाश सुलभ हो वहाँ रात्रिभोजन और दिवा भोजन में हिसा की दृष्टि से क्या अन्तर है
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उत्तर - उष्णप्रधान देश तथा पुराने ढंग के दीपक आदि की व्यवस्था मे साफ दीखनेवाली हिसा की दृष्टि से ही रात्रिभोजन को दिवाभोजन की अपेक्षा अधिक हिसायुक्त कहा गया है । यह बात स्वीकार कर लेने पर और साथ ही किसी विशेष परिस्थिति में दिन की अपेक्षा रात्रि में विशेष हिसा का प्रसग न भी आता हो, इस कल्पना को समुचित स्थान देने पर भी साधारण समुदाय की दृष्टि से और विशेषकर त्यागी जीवन की दृष्टि से रात्रिभोजन की अपेक्षा दिवाभोजन ही विशेष प्रशसनीय है इस मान्यता के सक्षेप में निम्न कारण है .
१. बिजली या चन्द्रमा आदि का प्रकाश भले ही अच्छा लगता हो, लेकिन वह सूर्य के प्रकाश जैसा सार्वत्रिक, अखण्ड तथा आरोग्यप्रद नही होता । इसलिए जहाँ दोनों सम्भव हों वहाँ समुदाय के लिए आरोग्य की दृष्टि से सूर्य प्रकाश ही अधिक उपयोगी होता है ।
२. त्यागधर्म का मूल सन्तोष है, इस दृष्टि से भी दिन की अन्य सभी प्रवृत्तियों के साथ भोजन प्रवृत्ति को भी समाप्त कर लेना तथा संतोपपूर्वक रात्रि के समय जठर को विश्राम देना हो उचित है । इससे ठीक-ठीक निद्रा आती है और ब्रह्मचर्यपालन में सहायता मिलती है । फलस्वरूप आरोग्य की वृद्धि भी होती है ।
३. दिवाभोजन और रात्रिभोजन दोनो मे से सतोष के विचार से यदि एक का ही चुनाव करना हो तब भी जाग्रत और कुशलबुद्धि का झुकाव दिवाभोजन की ओर ही होगा । आज तक के महान् संतो का जीवन - इतिहास यही बात कहता है । १ ।
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