________________
व्रत
साता-वेदनीय के आस्रवों में व्रती पर अनुकम्पा और दान ये दोनो गिनाए गए है । प्रसङ्गवश उन्ही के विशेष स्पष्टीकरण के लिए जैन परम्परा मे महत्त्वपूर्ण स्थान रखनेवाले व्रत और दान का विशेष निरूपण इस अध्याय मे किया जा रहा है।
व्रत का स्वरूप हिंसाऽनृतस्तेयाऽब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् । १ । हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह से ( मन, वचन, काय द्वारा ) निवृत्त होना व्रत है।
हिंसा, असत्य आदि दोषों के स्वरूप का वर्णन आगे किया गया है। दोषो को समझकर उनके त्याग की प्रतिज्ञा करने के बाद पुन. उनका सेवन न करने को व्रत कहते है। ____ अहिसा अन्य व्रतो की अपेक्षा प्रधान है अतः उसका स्थान प्रथम है। खेत की रक्षा के लिए जैसे बाड़ होती है वैसे ही अन्य सभी व्रत अहिंसा की रक्षा के लिए है । इसीलिए अहिसा की प्रधानता मानी गई है।
- व्रत के दो पहलू है-निवृत्ति और प्रवृत्ति । इन दोनो के होने से ही व्रत पूर्ण होता है। सत्कार्य में प्रवृत्त होने का अर्थ है असत्कार्या से पहले निवृत्त हो जाना । यह अपने आप प्राप्त होता है । इसी प्रकार असत्कार्यो से निवृत्त होने का अर्थ है सत्कार्यो में मन, वचन और काय की प्रवृत्ति करना । यह भी स्वत. प्राप्त है। यद्यपि यहाँ स्पष्ट रूप से दोषनिवृत्ति को ही व्रत कहा गया है तथापि उसमे सत्प्रवृत्ति का अंश आ ही जाता है। इसलिए व्रत केवल निष्क्रियता नही है।
प्रश्न-'रात्रिभोजनविरमण' नामक व्रत प्रसिद्ध है। सूत्र मे उसका निर्देश क्यो नही किया गया ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org