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तत्त्वार्थ सूत्र
[६.११-२६
सकते है । जैसे कि आलस्य, प्रमाद, मिथ्योपदेश आदि ज्ञानावरणीय अथवा दर्शनावरणीय के आस्रव के रूप मे नही गिनाए गए है, फिर भी वे उनके आस्रव है। इसी तरह वध, बन्धन, ताडन आदि तथा अशुभ प्रयोग आदि असातावेदनीय के आस्रवों मे नही गिनाए गये है, फिर भी वे उसके आस्रव है ।
प्रश्न-प्रत्येक मूलप्रकृति के आस्रव भिन्न-भिन्न दर्शाए गये है। इससे यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या ज्ञानप्रदोष आदि आस्रव केवल ज्ञानावरणीय आदि कर्म के ही बन्धक है अथवा इनके अतिरिक्त अन्य कर्मों के भी बन्धक है ? एक कर्मप्रकृति के आस्रव यदि अन्य प्रकृति के भी बन्धक हो सकते है तो प्रकृतिविभाग से आस्रवों का अलग-अलग वर्णन करना ही व्यर्थ है क्योंकि एक प्रकृति के आस्रव दूसरी प्रकृति के भी तो आस्रव है। और यदि यह माना जाय कि किसी एक प्रकृति के आस्रव केवल उसी प्रकृति के आस्रव है, दूसरी के नहीं तो शास्त्र-नियम में विरोध आता है। शास्त्र का नियम यह है कि सामान्य रूप से आयु को छोड़कर शेष सातो प्रकृतियों का बन्ध एक साथ होता है । इस नियम के अनुसार जब ज्ञानावरणीय का बन्ध होता है तब अन्य वेदनीय आदि छहों कर्मप्रकृतियों का भी बन्ध होता है । आस्रव तो एक समय मे एक-एक कर्मप्रकृति का ही होता है, किन्तु बन्ध तो एक समय मे एक प्रकृति के अतिरिक्त दूसरी अविरोधी प्रकृतियो का भी होता है । अर्थात् अमुक आस्रव अमुक प्रकृति का हो बन्धक है, यह मत शास्त्रीय नियम से बाधित हो जाता है। अत. प्रकृतिविभाग से आस्रवो के विभाग करने का प्रयोजन क्या है ?
उत्तर-यहाँ आस्रवो का विभाग अनुभाग अर्थात् रसबन्ध की अपेक्षा से बतलाया गया है । अभिप्राय यह है कि किसी भी एक कर्मप्रकृति के आस्रव के सेवन के समय उस कर्मप्रकृति के अतिरिक्त अन्य कर्म-प्रकृतियो का भी बन्ध होता है, यह शास्त्रीय नियम केवल प्रदेश-बन्ध के विषय मे ही घटित करना चाहिए, न कि अनुभाग-बन्ध के विषय मे । साराश यह है कि आस्रवो का विभाग प्रदेशबन्ध की अपेक्षा से नही, अनुभागबन्ध की अपेक्षा से है । अतः एक साथ अनेक कर्मप्रकृतियों का प्रदेशबन्ध मान लेने के कारण पूर्वोक्त शास्त्रीय नियम में कठिनाई नही आती तथा प्रकृतिविभाग से उल्लिखित आस्रव भी केवल उन-उन प्रकृतियो के अनुभागबन्ध मे ही निमित्त बनते है । इसलिए यहाँ आस्रवो का जो विभाग निर्दिष्ट है वह भी बाधित नही होता ।
इस व्यवस्था से पूर्वोक्त शास्त्रीय-नियम और प्रस्तुत आस्रवो का विभाग दोनों अबाधित बने रहते है । फिर भी इतनी बात विशेष है कि अनुभागबन्ध को आश्रित करके आस्रव के विभाग का समर्थन भी मुख्य भाव की अपेक्षा से ही
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