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६. ११-२६ ] आठ मूल कर्म - प्रकृतियों के भिन्न-भिन्न बन्धहेतु
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५. अभोक्ष्ण-संवेग -- सासारिक भोगों से जो वास्तव मे सुख के स्थान पर दुःख के ही साधन बनते हैं, डरते रहना अर्थात् कभी भी लालच मे न पड़ना । ६. यथाशक्ति त्याग -- अपनी अल्पतम शक्ति को भी बिना छिपाए आहारदान, अभयदान, ज्ञानदान आदि विवेकपूर्वक करते रहना । ७ यथाशक्ति तप - शक्ति छिपाए बिना विवेकपूर्वक हर तरह की सहनशीलता का अभ्यास । ८. संघसाधुसमाधिकरणचतुर्विध संघ और विशेषकर साधुओ को समाधि पहुँचाना अर्थात् ऐसा करना जिससे कि वे स्वस्थ रहे । ९. वैयावृत्त्यकरण — कोई भी गुणी यदि कठिनाई में पड जाय तो उस समय योग्य ढंग से उसकी कठिनाई दूर करने का प्रयत्न करना । १०-१३. चतुःभक्ति- अरिहंत, आचार्य, बहुश्रुत और शास्त्र इन चारों में शुद्ध निष्ठापूर्वक अनुराग रखना । १४. आवश्यका परिहाणि - सामायिक आदि षड्आवश्यको के अनुष्ठान को भाव से न छोडना । १५. मोक्षमार्गप्रभावना -- अभिमान तजकर ज्ञानादि मोक्षमार्ग को जीवन में उतारना तथा दूसरों को उसका उपदेश देकर प्रभाव बढ़ाना | १६. प्रवचनवात्सल्य -- जैसे गाय बछडे पर स्नेह
रखती है वैसे ही साधर्मियों पर निष्काम स्नेह रखना । २३ ।
नीच गोत्रकर्म के बन्धहेतु --- १. परनिन्दा -- दूसरों की निन्दा करना । निन्दा का अर्थ है सच्चे या झूठे दोषों को दुर्बुद्धिपूर्वक प्रकट करने की वृत्ति । २. आत्मप्रशंसा -- अपनी बडाई करना अर्थात् अपने सच्चे या झूठे गुणो को प्रकट करने की वृत्ति | ३. आच्छादन -- - दूसरे के गुणों को छिपाना और प्रसंग आने पर भी द्वेष से उन्हे न कहना । ४. उद्भावन -- अपने मे गुण न होने पर भी उनका प्रदर्शन करना अर्थात् निज के असद्गुणों का उद्भावन । २४ ।
उच्च गोत्रकर्म के बन्धहेतु -- १. आत्मनिन्दा -- अपने दोषो का अवलोकन । २. परप्रशंसा -- दूसरो के गुणों की सराहना । ३. असद्गुणोद्भावन -- अपने दुर्गुणों को प्रकट करना । ४. स्वगुणाच्छादन -- अपने विद्यमान गुणों को छिपाना । ५. नम्रवृत्ति -- पूज्य व्यक्तियों के प्रति विनम्रता । ६. अनुत्सेक -- ज्ञान, सम्पत्ति आदि मे दूसरे से अधिकता होने पर भी उसके कारण गर्व न करना । २५ ।
अन्तराय कर्म के बन्धहेतु -- किसी को दान देने मे या किसी को कुछ लेने मे अथवा किसी के भोग एवं उपभोग आदि मे बाधा डालना अथवा मन में वैसी वृत्ति पैदा करना विघ्नकरण है । २६ ।
साम्परायिक कर्मों के प्रसव के विषय में विशेष वक्तव्य --सूत्र ११ से २६ तक साम्परायिक कर्म की प्रत्येक मूल प्रकृति के भिन्न-भिन्न आस्रव या बन्धहेतु उपलक्षण मात्र है । अर्थात् प्रत्येक मूलप्रकृति के गिनाए गए आस्रवों के अतिरिक्त अन्य भी वैसे ही उन प्रकृतियों के आस्रव न कहने पर भी समझे जा
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