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तत्त्वार्थमूत्र
[ ६ ११-२६
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आयुओं के सामान्य बन्धुहेतु भी है । प्रस्तुत सूत्र मे उन्ही का कथन है । वे बन्धहेतु ये है . नि. शीलत्व-शील से रहित होना और निर्व्रतत्व - व्रतो से रहित होना । १. व्रत --- अहिंसा, सत्य आदि पाँच मुख्य नियम । २. शील - व्रतों की पुष्टि के लिए अन्य उपवतों का पालन, जैसे तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । उक्त व्रतो के पालनार्थ क्रोध, लोभ आदि के त्याग को भी शील कहते है । व्रत का न होना निव्रतत्व एवं शील का न होना नि.शीलत्व है । १९ ।
२.
देवा कर्म के बन्धहेतु – १. हिंसा, असत्य, चोरी आदि महान् दोषों से विरतिरूप संयम अंगीकार कर लेने के बाद भी कषायों के कुछ अंश का शेष रहना सरागसंयम है । हिंसाविरति आदि व्रतों का अल्पाश में धारण करना संयमासंयम है । ३. पराधीनता के कारण या अनुसरण के लिए अहितकर प्रवृत्ति अथवा आहार आदि का त्याग अकाम निर्जरा है । ४. बालभाव से अर्थात् बिना विवेक के अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, पर्वत-प्रपात, विषभक्षण, अनशन आदि देहदमन की क्रियाएँ करना बालतप है । २० ।
अशुभ एव शुभ नामकर्म के बन्धहेतु - १. योगवक्रता - मन, वचन और काय की कुटिलता । कुटिलता का अर्थ है सोचना कुछ बोलना कुछ और करना कुछ । २. विसंवादन - अन्यथा प्रवृत्ति कराना अथवा दो स्नेहियों के बीच भेद पैदा करना । ये दोनो अशुभ नाम कर्म के बन्ध के कारण है ।
प्रश्न -- इन दोनो मे क्या अन्तर है ?
उत्तर-- 'स्व' और 'पर' की अपेक्षा से अन्तर है । अपने ही विषय मे मन, वचन और काय की प्रवृत्ति भिन्न पडे तब योगवक्रता और यदि दूसरे के विषय मे ऐसा हो तो वह विसंवादन है । जैसे कोई रास्ते से जा रहा हो तो उसे 'ऐसे नही, पर ऐसे' इस प्रकार उलटा समझाकर कुमार्ग की ओर प्रवृत्त करना ।
इससे विपरीत अर्थात् मन, वचन, काय की सरलता ( प्रवृत्ति की एकरूपता ) तथा संवादन अर्थात् दो व्यक्तियों के भेद को मिटाकर एकता करा देना अथवा गलत रास्ते पर जानेवाले को सही रास्ते लगा देना दोनो शुभ नाम-कर्म के बन्ध के कारण है । २१-२२ ।
तीर्थंकर नामकर्म के बन्धहेतु -- १. दर्शन विशुद्धि - वीतरागकथित तत्त्वों मे निर्मल और दृढ़ रुचि । २. विनयसम्पन्नता -- ज्ञानादि मोक्षमार्ग और उसके साधनों के प्रति समुचित आदरभाव । ३. शीलव्रतानतिवार - अहिंसा, सत्यादि मूल व्रत तथा उनके पालन मे उपयोगी अभिग्रह आदि दूसरे नियम या शील के पालन मे प्रमाद न करना । ४. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग - तत्त्वविषयक ज्ञान में सदा जागरित रहना ।
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