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७. ८ ] हिमा का स्वरूप
१७३ उत्तर--जब तक मानव-समाज के विचार और व्यवहार मे उच्च संस्कार का प्रवेश नही होता तब तक मानव-समाज तथा अन्य प्राणियों के बीच जीवनव्यवहार मे विशेष अन्तर नही पडता । पशु-पक्षी की भाँति असंस्कृत समाज के मनुष्य मी मानसिक वृत्तियो से प्रेरित होकर जाने-अनजाने जीवन की आवश्यकताओं के लिए अथवा बिना आवश्यकताओं के ही दूसरे जीवों के प्राण लेते है । मानव-समाज की हिंसा-मय इस प्राथमिक दशा मे जब एकाध मनुष्य के विचार मे हिंसा के स्वरूप के बारे मे जागृति होती है तब वह प्रचलित हिसा को दोषरूप कहता है और दूसरे के प्राण न लेने की प्रेरणा करता है। एक ओर हिंसा जैसी प्रथा के पुराने संस्कार और दूसरी ओर अहिंसा की नवीन भावना का उदय. इन दोनो के बीच संघर्ष होते समय हिसकवृत्ति की ओर से हिंसा-निषेधक के समक्ष अनेक प्रश्न अपने-आप खडे होने लगते है और वे उसके सामने रखे जाते है । संक्षेप मे वे प्रश्न तीन है
१. अहिंसा के समर्थक भी जीवन-धारण तो करते ही है और यह जीवन किसी-न-किसी प्रकार की हिसा किये बिना निभने योग्य न होने से उनसे जो हिसा होती है उसे दोष कहा जाय या नही ?
२. भूल और अज्ञान का जब तक मानवीय वृत्ति में सर्वथा अभाव सिद्ध न हो जाय तब तक अहिंसा के समर्थकों के हाथो अनजाने या भूल से किसी का प्राणनाश होना तो सम्भव ही है, अतः ऐसा प्राण नाश हिंसा दोष मे आयेगा या नही ?
३. कई बार अहिसक वृत्ति का मनुष्य किसी को बचाने या उसको सुख-सुविधा पहुँचाने का प्रयत्न करता है, परन्तु परिणाम उलटा हो आता है, अर्थात् जिसको बचाना था उसी के प्राण चले जाते है। यह प्राणनाश हिंसा-दोष मे आयेगा या नही ?
ऐसे प्रश्न उपस्थित होने पर उनके समाधान मे हिसा और अहिसा के स्वरूप का विचार गम्भीर हो जाता है। फलत हिसा और अहिसा का अर्थ विशाल हो जाता है। किसी के प्राण लेना या बहुत हुआ तो उसके निमित्त किसी को दु.ख देना यह जो हिमा का अर्थ समझा जाता था तथा किसी के प्राण न लेना और उसके निमित्त किसी को दु ख ल देना यह जो अहिंसा का अर्थ समझा जाता था उसके स्थान पर अहिसा के विचारको ने सूक्ष्मतापूर्वक विचार करके निश्चय किया कि केवल किसी के प्राण लेने या किसी को दुःख देने मे हिंसा-दोष है ही, यह नही कह सकते, क्योकि प्राणवध या दुःख देने के साथ ही उसके पीछे वैसा करनेवाले की भावना का विचार करके ही हिंसा की सदोषता या निर्दोषता का
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