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कई अन्य भावनाएँ
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पारलौकिक अनिष्ट की जो सम्भावना होती है उसका ध्यान रखना पारलौकिक दोषदर्शन है । इन दोनों प्रकार के दोषदर्शन के संस्कारों को बढाते रहना अहिंसा आदि व्रतों की भावनाएं है ।
पहले की ही भाँति त्याज्य वृत्तियों में दुख के दर्शन का अभ्यास किया हो तभी उनका त्याग भलीभाँति टिक सकता है। इसके लिए हिसा आदि दोषों को दुःखरूप मानने की वृत्ति के अभ्यास ( दु.ख - भावना ) का यहाँ उपदेश दिया गया है । अहिंसादि व्रतों का धारक हिसा आदि से अपने को होनेवाले दुःख के समान दूसरों को होनेवाले ख की कल्पना करे, यही दुःख-भावना है । यह भावना इन व्रतों के स्थिरीकरण मे भी उपयोगी है |
मैत्री, प्रमोद आदि चार भावनाएँ तो किसी सद्गुण के अभ्यास के लिए अधिक-से-अधिक उपयोगी होने से अहिंसा आदि व्रतो को स्थिरता में विशेष उपयोगी हैं । इसी विचार से यहाँ पर इन चार भावनाओ का उल्लेख किया गया है । इन चार भावनाओं का विषय अमुक अंश मे तो अलग-अलग ही है, क्योंकि उस-उस विषय मे इन भावनाओ का अभ्यास किया जाय तभी वास्तविक परिणाम आता है । इसीलिए इन भावनाओं के साथ इनका विषय भी अलग-अलग दर्शाया गया है ।
प्राणी के प्रति अहिंसक
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१. प्राणिमात्र के साथ मैत्रीवृत्ति हो तभी प्रत्येक तथा सत्यवादी के रूप मे बर्ताव किया जा सकता है अतः मैत्री का विषय प्राणिमात्र है | मैत्री का अथ है दूसरे मे अपनेपन की बुद्धि और इसीलिए अपने समान ही दूसरे को दुःखी न करने की वृत्ति अथवा भावना !
२. कई बार मनुष्य को अपने से आगे बढे हुए व्यक्ति को देखकर ईर्ष्या होती है । जब तक इस वृत्ति का नाश नही हो जाता तब तक अहिंसा, सत्य आदि व्रत टिकते ही नही । इसीलिए ईर्ष्या के विपरीत प्रमोद गुण की भावना के लिए कहा गया है । प्रमोद अर्थात् अपने से अधिक गुणवान् के प्रति आदर रखना तथा उसके उत्कर्ष को देखकर प्रसन्न होना । इस भावना का विषय अधिक गुणवान् ही है, क्योंकि उसके प्रति ही ईर्ष्या या असूया आदि दुर्वृत्तियाँ सम्भव है । ३ किसी को पीडित देखकर भी यदि अहिंसा आदि व्रत कभी निभ नही सकते, मानी गई है । इस भावना का विषय केवल क्योकि दुःखी, दीन व अनाथ को ही अनुग्रह तथा मदद की अपेक्षा रहती है । ४. सर्वदा और सर्वत्र मात्र प्रवृत्तिपरक भावनाएँ ही साधक नही होतीं, कई बार अहिंसा आदि व्रतों को स्थिर करने के लिए तटस्थ भाव धारण करना बड़ा
अनुकम्पा का भाव पैदा न हो तो इसलिए करुणा की क्लेश से पीडित
भावना आवश्यक दुःखी प्राणी है,
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