________________
६. ११-२६ ]
आठ मूल कर्म - प्रकृतियों के भिन्न-भिन्न बन्धहेतु
१६५
किया गया है । अर्थात् ज्ञानप्रदोष आदि आस्रवों के सेवन के समय ज्ञानावरणीय के अनुभाग का बन्ध मुख्य रूप से होता है और उसी समय बँधनेवाली अन्य कर्म - प्रकृतियों के अनुभाग का बन्ध गौण रूप से होता है । यह तो माना ही नही जा सकता कि एक समय मे एक प्रकृति के ही अनुभाग का बन्ध होता है और अन्य कर्मप्रकृतियों के अनुभाग का बन्ध होता ही नही । क्योकि जिस समय जितनी कर्मप्रकृतियों का प्रदेशबन्ध योग द्वारा सम्भव है उसी समय कषाय द्वारा उतनी ही प्रकृतियों का अनुभागबन्ध भी सम्भव है । इसलिए मुख्य रूप से अनुभागबन्ध की अपेक्षा को छोडकर आस्रव के विभाग का समर्थन अन्य प्रकार से ध्यान मे नही आता । २६ ।
Jain Education International
For Private Personal Use Only
www.jainelibrary.org