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६. ११-२६ ]
आठ मूल कर्मप्रकृतियो के भिन्न-भिन्न बन्धहेतु
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प्रकाशित न करना, उसके गुणों को न दरसाना आसादन है और ज्ञान को ही अज्ञान मानकर उसे नष्ट करने का विचार रखना उपघात है । ११ ।
असातावेदनीय कर्म के बन्धहेतु - १. दु.ख -- बाह्य या आन्तरिक निमित्त से पीडा होना । २. शोक -- किसी हितैषी का सम्बन्ध टूटने से चिन्ता और खेद होना । ३. ताप -- अपमान से मन के कलुषित होने से तीव्र संताप होना । ४. आक्रन्दन-- गद्गद स्वर से आँसू गिराने के साथ रोना पीटना । ५ वध-किसी के प्राण लेना । ६. परिदेवन - - वियुक्त व्यक्ति के गुणों के स्मरण से होने
वाला करुणाजनक रुदन ।
उक्त दुःख आदि छ. और ऐसे ही ताड़न तर्जन आदि अनेक निमित्त अपने करने पर उत्पन्न करनेवाले के असातावेदनीय
में, दूसरे मे या दोनों में पैदा कर्म के बन्धहेतु बनते है ।
प्रश्न - यदि दुःख आदि पूर्वोक्त निमित्त अपने में या दूसरे में उत्पन्न करने से असातावेदनीय कर्म के बन्धहेतु होते है तो फिर लोच, उपवास, व्रत तथा इस तरह के दूसरे नियम भी दुःखद होने से असातावेदनीय के बन्धहेतु होने चाहिए । यदि ऐसी बात हो तो उन व्रत आदि नियमों का अनुष्ठान करने की अपेक्षा उनका त्याग करना ही क्या उचित नही होगा ?
उत्तर—उक्त दुःख आदि निमित्त जब क्रोध आदि आवेश से उत्पन्न होते हैं तभी आस्रव ( बन्ध ) के हेतु बनते है, न कि केवल सामान्य रूप मे दुःखद होने से । सच्चे त्यागी या तपस्वी को कठोर व्रत नियमो का पालन करने पर भी असातावेदनीय कर्म का बन्ध नही होता । इसके दो कारण है । पहला तो यह कि सच्चा त्यागी कठोर व्रतों का पालन करते हुए क्रोध या वैसे ही अन्य किसी दुष्ट भाव से नहीं बल्कि सद्वृत्ति और सद्बुद्धि से प्रेरित होकर ही चाहे जितना दुःख उठाता है । वह कठिन व्रतों को धारण करता है, पर चाहे जितने दुःखद प्रसंग आ जायँ उनमे क्रोध, संताप आदि कषाय का अभाव होने से वे प्रसंग उसके लिए बन्धक नहीं बनते । दूसरा कारण यह है कि कई बार तो वैसे त्यागियों को कठोरतम व्रत तथा नियमों का पालन करने मे वास्तविक प्रसन्नता अनुभव होती है और इसीलिए वैसे प्रसंगों में उनको दुःख या शोक आदि का होना सम्भव हो नही । यह तो सर्वविदित है कि एक को जिन प्रसंगों में दुःख होता है, उसी प्रसंग मे दूसरे को भी दुख हो यह आवश्यक नही है । इसलिए ऐसे नियम व्रतों का पालन मानसिक रति ( रुचि ) होने से उनके लिए सुखरूप ही होता है । जैसे कोई दयालु वैद्य चीरफाड के द्वारा किसी को दुःख देने का निमित्त बनने पर भी करुणावृत्ति से प्रोस्त होने से प्रापभागी नही होता वैसे ही सांसारिक दुःख दूर करने
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