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तत्त्वार्थमूत्र
[ ६. ११-२६ तथा प्रवचन की भक्ति, आवश्यक क्रिया को न छोड़ना, मोक्षमार्ग की प्रभावना और प्रवचनवात्सल्य ये सब तीर्थकर नामकर्म के बन्धहेतु हैं।
परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणो का आच्छादन और असद्गुणों का प्रकाशन ये नीत्र गोत्रकर्म के बन्वहेतु हैं।
उनका विपर्यय अर्थात् परप्रशंसा, आत्मनिन्दा आदि तथा नम्रवृत्ति और निरभिमानता ये उच्च गोत्रकर्म के बन्धहेतु है।
दानादि में विघ्न डालना अन्तरायकर्म का बन्धहेतु है।
सूत्र ११ से अध्याय के अन्त तक प्रत्येक मूल कर्मप्रकृति के बन्धहेतुओं का क्रमशः वर्णन किया गया है। सामान्य रूप से योग और कषाय ही सब कर्मप्रकृतियो के बन्धहेतु है, फिर भी कषायजन्य अनेकविध प्रवृत्तियों में से कौनकौन-सी प्रवृत्ति किस-किस कर्म के बन्ध का हेतु होती है, यहो विभागपूर्वक प्रस्तुत प्रकरण मे बतलाया गया है ।
ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मों के बन्धहेतु-१. तत्प्रदोष--ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के साधनों के प्रति द्वेष करना अथवा रखना अर्थात् तत्त्वज्ञान के निरूपण के समय मन मे तत्त्वज्ञान के प्रति, उसके वक्ता के प्रति अथवा उसके साधनों के प्रति डाह रखना । इसे ज्ञानप्रद्वेष भी कहते है। २. ज्ञान-
निवकोई किसी से पूछे या ज्ञान के साधन की माँग करे तब ज्ञान तथा ज्ञान के साधन पास में होने पर भी कलुषित भाव से यह कहना कि 'मै नही जानता अथवा मेरे पास वह वस्तु है ही नही'। ३. ज्ञानमात्सर्य---ज्ञान अभ्यस्त व परिपक्व हो एवं देने योग्य हो तो भी उसके अधिकारी ग्राहक के मिलने पर उसे न देने की कलुषित वृत्ति । ४. ज्ञानान्तराय--कलुषित भाव से ज्ञानप्राप्ति में किसी को बाधा पहुँचाना । ५. ज्ञानासादन--दूसरा कोई ज्ञान दे रहा हो तब वाणी अथवा शरीर से उसका निषेध करना। ६. उपघात--किसी ने उचित ही कहा हो फिर भी अपनी विपरीत मति के कारण अयुक्त भासित होने से उलटे उसी के दोष निकालना।
पूर्वोक्त प्रदोष, निह्नव आदि जब ज्ञान, ज्ञानी या उसके साधन के साथ सम्बन्ध रखते हो तब वे ज्ञानप्रदोष, ज्ञाननिह्नव आदि कहलाते है और दर्शन ( सामान्य बोध ), दर्शनी अथवा दर्शन के साधन के साथ सम्बन्ध रखते हों तब दर्शनप्रदोष, दर्शननिह्नव आदि कहलाते है ।
प्रश्न-आसादन और उपघात मे क्या अन्तर है ? उत्तर-ज्ञान के होने पर भी उसकी विनय न करना, दूसरे के सामने उसे
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